मंगलवार, 17 जुलाई 2012

बंटई लाल ...

गपोड़ी कला में कल्पना कब कुलांचे मारती अपना अस्तित्व मिटा देती है ..और कब वह हकीकत लगने लगती है इसे कोई नहीं समझ पाता ..., बस वह आपकी भावनाओं में एकाकार हो जाती है ....गपोड़ी अपनी कला के प्रति बहुत ही बिनम्र होते हैं भाव ऐसे की ....बस नारद की संगत ..! आज गपोड़ी कथा में पेश हैं बंटई लाल ....!उनकी उम्र तब ४५ के आसपास रही होगी हम स्कूल में थे कक्षा ९ की बात है ....! सन शायद ८६ ही रहा होगा ..खैर बंटई लाल का बजन ४० किलो के आस-पास रहा होगा कद काठी भी औसत से कम ..रंग गोरा और मूंछें हलकी ..दाड़ी हफ्ते में एकाधबार बन जाती थी अक्सर सफ़ेद कुरते पाजामे पाए जाते थे ..हाँ सफ़ेद रंग तो अहसास भर था ..सेष रंग उनके परिश्रम को दर्शाते थे ..मुहं छोटा और आँखे धंसी हुयीं ...लेकिन बड़ी आशावान ...! दोपहर में स्कूल का मध्यांतर होते ही मेरे जैसे कई नव किशोर आशाओं के दीप कल्पना में लेकर बंटई लाल की रेहडी पर खड़े हो जाते थे ..रेहडी मक्खियों से भरी होती थी और उन्हें उड़ाने का उपक्रम मात्र किया जाता था ..रेहडी पर छोटी-छोटी टिकियाँ मिलतीं थी ..मक्खियाँ उड़ाने में हम लोग भी तत्परता दिखाकर इस लालच में हाथ बंटाते की बंटई लाल एकाध टिक्की ज्यादा दे देंगे ..लेकिन मानना पड़ेगा उनकी याद दाश्त को, किसी को कभी भी तिल भर ज्यादा नहीं दिए होंगे ...! और हाँ... हिसाब - किताब में मुहं जुबानी हम सभी के नाम से उधारी खाते रटे पड़े थे किसी का हिसाब २-३ रुपये से ज्यादा न था तब भी ..रकम तो होती ही थी ..! बंटई लाल ने टिकियाँ देते हुए एक बार बताया की , तुम लोगों से पहले एक लड़का पढता था उसका नाम लखन लाल था ..लखन को टिकियाँ बहुत भाती थीं ..एक बार उसने अपने दोस्त से शर्त लगाईं की वो अकेले ही पूरी टिकियाँ खा जाएगा..., न खा पाया तो शर्त का पैसा बंटई लाल और दोस्त में बाँट दिया जायेगा ! टिकियाँ दस किलो से कम तो न होंगी ....५ रुपये की शर्त थी , सो टूट पड़े लखन लाल .लेकिन वे टिकियाँ खाते रहे और टिकियाँ बढती रहीं ..टिकियाँ ख़त्म होने का नाम ही नहीं लें रहीं थी ..हार गये लखन लाल ..और ऊपर -नीचे दोनों तरफ से चालू होगये ....तुम्हें तो मालूम मेरे ऊपर भगवान् की कितनी कृपा है ...बस इतना कहना था ..की हम लोग भी जेबें टटोलने लगे कहीं भगवान से हमारी शिकायत न हो जाये ....और हम भी लखन लाल न बन जाएँ ....

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