शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

बेरिस्टर बाबू .....

गपोड़ी भी भगवान की ही देन हैं..लेकिन इनकी इस विधा को सामाजिक स्तर पर उपहास की दृष्टि से ही देखा जाता है ..जब की हकीकत यह है की गपोड़ी जितनी शिद्दत से अपनी कला प्रस्तुत करता है उतना कोई भी विधा का जानकार नहीं करता ..क्योंकि गपोड़ी पूरी तरह मौलिक होते हैं ...! आज गपोड़ियों की श्रंखला के झंडाबरदार हैं ..बेरिस्टर सिंह ..! आम तौर पर पदों के उपाधियों के नाम तभी रखते हैं लोग जब उनके पिता जी मन मसोसे उस पद को लपक नहीं पाते ...! शायद इसी सोच के पैदाईश थे बेरिस्टर सिंह ...! इनसे सरस्वती कभी सधी नहीं ..और लक्ष्मी कभी रूठी नहीं ..अपनी जमीन , अपना मकान ...बस कमी थी तो एक सुघर बीवी की ..अक्सर उसे सोच कर जीवंत से हो जाते ..कहते क्या करूं गुदगुदाहट होने लगती है ....और उसी समय कोई समसामयिक गाना उनके होठों पर आ जाता ..! नौटंकी देखने के शौक़ीन रहे थे ..फिल्मों का भीशौक पाल बैठे थे तब उस ज़माने में सोनी कम्पनी का वी. सी आर. घर उठा लाये जो उनके सामजिक सम्मान का कारण बन गया ..और किराये पर चलाते-चलाते आय का साधन भी ..! बेरिस्टर सिंह के शारीरिक विन्यास में ठकुराई के कोई लक्षण विद्यमान नहीं थे ..बस मूंछों का सहारा था जो उन्हें अपने कुल के करीब रखती थी ...हाँ गालियाँ जरूर थी जो विशेषण रूप में अपने पिताजी तक को भेंट कर देते थे ..सो पिताजी भी इनसे कीप-डिस्टेंस का बोर्ड लगाकर चलते थे ..! एक बार हांका मारते हुए बेरिस्टर बोले ..- " क्या कहें भैया एक बार जब हम छोटे थे तब गाँव में डकैत आ गए ..खूब कुत्ता भोंके ,चिरैयां उडी आदमी रजैया में घुस गओ ...तब हमने स्कूल के बस्ता में से अपनों बेल्ट निकारो और भज के डकेंतन से भिड़ गए ..ताके बाद एकउ डकेत नहीं आओ ...." मैं उनकी बहुदरी के सम्मुख बांकई नतमस्तक था ....!

प. दिल्ली राम ...

गपोड़ियों का कला विन्यास अपरिमित रहता है .....इसमें खूब कनकौए से गोते लगाते गपोड़ी धडाम से आपकी गोद में गिरते हैं और फिर शुरू हो जाते हैं .....! आज गप्पों के रथ पर सवार गपोड़ी हैं प. दिल्ली राम शर्मा ..बचपन में हमारे पडौसी थे पंडित जी ...! पंडित जी की धर्मिष्ठ देखते ही बनती थी ..कांवर हो या राम लीला सब में पंडित जी हमेशा आगे रहते ..शरीर छरहरा था रंग सांवला ..किस्मत के धनि थे से अच्छी पंडिताइन भी पा गए कह रहे थे की शंकर पूजे थे सो गौरी सी बीवी पा गए ..! गाँव में खेती किसानी भी रही सो पंडित जी बिंदास से घूमते खूब गपियाते ..! पंडित जी का दर्शन बहुत चोखा था ...जहाँ लाभ वहां धरम और जहाँ हानि वहां अधर्म ..! गल्ला की छोटी-मोटी आढ़त में इस दर्शन का भरपूर उपयोग करते ..किसान भी भोचक्क ...आखिर इतना ज्ञानी व्यापारी जो मिल गया ..! एक बार गर्मी की रातों में लाईट के अभाव में पंडित जी घर की गैलरी में गप्पों की पोटली खोले बैठे थे अचानक एक किस्सा निकाल बैठे ..., बोले ' एक बार गाँव में राम लीला का पाठ खेल रहा था ..मैं राम बना था ...लख्खों की भीड़ थी मेरा एक विरोधी जो हमेशा रावण बनता था सो खार खाए बैठा था ..! एक बार धनुष यज्ञ के समय ससुरा चाल खेल गया और लकड़ी के धनुष की जगह लोहे की सरिया डाल दी ..मैंने धनुष उठाया और बोलना शुरू किया ..जैसे धनुष पर डोरी चडाई धनुष ऐंठ गया ..टूटे ही नहीं , फिर क्या मैंने हनुमान जी को सच्चे मन से याद किया और कहा मालिक लाज रख लो ..अचानक हनुमान जी की ताकत मेरे अन्दर आ गयी ..और धनुष का चटाका बीता ...और ससुरे का मुहँ ऐंठ गया ...! '

लक्षमण पंडित ....

वाह! बादल और गपोड़ी दोनों खूब बरसते हैं ...गपोड़ी विज्ञ होकर भी अनभिज्ञता दर्शाते हैं लेकिन फिर भी मासूमियत से स्वीकार करते हैं ..'भैया अब हम का जानब '....! आज के इस श्रंखला के सहरेदार हैं लक्षमण पंडित ..! सन ९४ तक इनका सानिध्य प्राप्त हुआ ..उड़ते हुए खबर मिली है की आज कल ग्वालिअर की शोभा बढ़ा रहें हैं ....वो तो यूनेस्को निदेशक परिचित न था ..नहीं तो विश्व धरोहर बन गए होते हमारे पंडित जी ..! स्त्री विषयक प्रसंगों पर आत्मीय रसिकता झलकती थी आदर्श कृष्ण को मानते थे ..लेकिन कर्मगत नहीं बस प्रेमगत ..! शादी हो न सकी ( कारण अज्ञात ) लेकिन उसकी कमी उन्हें कभी महसूस नहीं हुयी अब इस आधार पर वे तपस्वी पंडित तो नहीं कहे जा सकते ..लेकिन ब्रह्मचर्य को आवश्यकता अनुरूप जेब में डाल लेते थे ...! गुटखा के खासे शोकीन थे एक सींक लगातार दांत की गहराई नापती रहती थी ...और छोटे छोटे सुपारी के टुकड़ों को बाहर का रास्ता दिखाकर ही मानती थी ..इस पर उन्हें जो संतोष मिलता वो तो उनके चेहरे को देखकर ही लग जाता था ...दक्षिण भारतीय न थे फिर भी लुंगी- बनियान उनका आदर्श परिधान था ...कहते थे शरीर के हर भाग उचित अनुपात में खुली हवा मिलनी चाहिए ...! इस सिद्धांत के पोषक होने के बाबजूद उन्हें अक्सर दाद -खाज की दवाओं का सेवन और लेपन करना पड़ता था ....! पंडित जी अपनी बातों में वही ताकत रखते थे जो अमेरिका रखता है जो कहा है वही है ....इसी विन्यास में एक बार उन्होंने बताया की "रात को सपने में एक औरत आई ..( इसके अलावा उनके पास कोई आ भी नहीं सकता था ..शेष का प्रवेश निषेध जो था ...) और इन्हें अपने साथ छत पर ले गयी ..वहाँ उसने बताया की मैं यहाँ से कूंदी मारकर मरी थी और तुम मेरे पिछले जन्म के पति हो ...! इतना सुनकर पंडित जी की घिग्गी बांध गयी .फिर उस औरत ने कहा की अब मैं तुम्हारे साथ रहूंगी ....! पंडित जी को काटो तो खून नहीं ....अचानक हडबडाकर उठ बैठे दसों लोटे पानी चढ़ाया ..सांस को नियंत्रित किया ..और हनुमान चालीसा पढ़ते हुए हनुमान जी के सामने प्रण कर लिया की सारी महिलाएं मेरी बहने हैं ....

राम निवास उवाच ....

गपोड़ियों की खासियत होती है की उनकी कल्पना नितांत मौलिक होती है ..और आज तक किसी गपोड़ी पर कॉपी राइट एक्ट लगा हो याद नहीं पड़ता ...! खैर इस कला की विशेषज्ञता हांसिल कर चुके लोगों में आज के गपोड़ी है रामनिवास .....! मुझसे दो सावन ज्यादा ही झूले हैं लेकिन लम्बाई में थोड़ी मात खा गए लेकिन मुझसे न ही भाईपना पा सके और ना ही मित्रता ...बस परिचय दार कहे जा सकते हैं इधर गत २ वर्षों से अता-पता नहीं है लेकिन , उनकी बातें अक्सर जहन में रहती हैं ...! रामनिवास प्रकांड वेदज्ञ परिवार के अंश थे लेकिन उनपर किसी भी ऋचा की मात्रा की छाया पड़ी हो कभी महसूस नहीं करा पाए ...सिगरेट लुक-छुप कर धोंक लेते थे..स्कूल की दीवार पर सिगरेटी टोंटे उनकी मजा मोज की गवाही देते थे ...! सिगरेटी धुआं कब उन्हें प्रयोगशाला का भावी नमूना बना गया मालूम ही नहीं पड़ा ...! देखते ही देखते वे जीवाश्म से हो गए ..किसी ने बताया की प्रेम का ला-इलाज़ रोग पाल बैठे हैं कहते हैं की ५० % है लेकिन इनकी तरफ से ही ..! सुनने में आया की किसी ठाकुर साहब की बिटिया को तांक बैठे हैं..और उसके पिता दरोगा हैं ...! सो मुहब्बत चाहते हुए भी प्रकट नहीं हो पा रही थी ..! शरीर पर चढ़े कपडे बस किसी प्रकार हड्डियों से टिके हैं ..और हाथों पर चढ़ा कड़ा बार - बार रुके रहने की मसक्कत करता है ..! इसी भाव बोध के साथ वे जोश में आकर सेना की भर्ती देखने चले गए ...! असफल होकर लोटे ...तो उनसे पूछ ताछ प्रारंभ हो गयी ..राम निवास बोले - ' अरे वे तो कह रहे थे की भर्ती हो जाओ जल्दी प्रमोशन करा देंगे ..ऐश से रहना .., लेकिन फिर परिवार कौन देखता सो बस लौट आये .." राम निवास साढ़े नौ अंगुल का सीना ताने सिगरेट धोंकने की तयारी करने लगे.....!!!

मंजीत भैया ...बिंदास

गपोड़ी कभी भी संज्ञा शून्य नहीं होते ..वे अंतस को टटोलते हैं फिर वार करते हैं ..! इसी बोध के साथ आज के गपोड़ी है मंजीत भैया ....! ये मेरे ही संस्थान में अपनी सेवाएँ देते हैं ..नए वैवाहिक जीवन में विगत माह प्रवेश कर गए सो रंग रोगन करा लिए थे अचानक नव अवतार से लगने लगे ....! शरीर सिंगल चेसिस जैसे पुरानी लूना...लेकिन अवरेज बहत कम देते हैं ...! दांत सुरती का संग पाकर अपनी हेसियत गंवा बैठे हैं ...चेहरा चिपके हुए बरसाती पोस्टर सा होता जा रहा है ..लेकिन अदम्य लालसाओं का भण्डार जफ्त किये हुए हैं ..हमारे मंजीत ...! मंजीत की दिन चर्या क्या होगी ये तो ज्ञात नहीं ..लेकिन भाव भंगिमाएं ये दर्शाती हैं मानो सारे शहर को यही संचालित कर रहे हैं ....! एक बार मंजीत ने बताया सर , पता है मेरी शादी कैसे तय हुयी ..मैंने कहा नहीं ,... तब मंजीत बोले मैंने अपनी तनख्वा बढ़ा कर बता दी ..इस से पहले सही बताये तो लोग रिजेक्ट कर दिए अबकी बढ़ा कर बताये तो सेलेक्ट हो गए ..क्या करें सर शादी की बात थी ..लोग तो समझते नहीं ...अब सर थोड़ी तनख्वा बढ़ा दीजिये ....!

बुधवार, 18 जुलाई 2012

बिशम्भर भईया ....


गपोड़ी पीड़ा को पीकर जीते हैं ..बिंदास और अमर बोल रखते हैं ...बस उन्हें पहचान का संकट मंडराया रहता है ..सो बस ...खैर आज के गपोड़ी महाराज हैं बिशम्भर सिंह ...! जाति व्यवस्था से कभी मोह नहीं रखा सो सर्वग्राही बने रहे ..कहतें हैं की रास रसय्या के समान ये भी तमाम बालाओं पर अधिकार रखते थे ..अक्सर दुकान से शिलाजीत के केप्सूल लेने आते ..! वाजीकरण के जितने नुस्खे चरक , नागार्जुन नहीं खोज पाए उस से ज्यादा नुस्खे मुह जुबानी याद थे ....! तिल , तिला , भस्म , बूटी , पाक ..सब के बारे में एक वैध से ज्यादा जानकारी रखते ...! तमाम आयुर्वेदाचार्यों की गलत वयानी जेब में रख कर टहलते ..मजाल है की इलाके कोई वैध उनसे परिचित न हो ..मीन मेख निकलने में माहिर थे बिशम्भर सिंह ..! पैसे की गर्मी थी सो अक्सर बसंत कुसुमाकर , बसंत मालती . स्वर्ण भस्म ..एक साथ थोक के भाव ले जाते ...! लेकिन आश्चर्य की बात थी बाजीकरण के माहिर खिलाड़ी की तंदरुस्ती कोई ख़ास नहीं थी ..! अगर वे पैसे की गर्मी और दुनाली साथ न रखें तो कोई उन्हें टके भाव भी न पूछे  ...! पारिवारिक विन्यास विखराव बाला था ..बीवी कम उम्र में ही चल बसी .., बड़े बेटे की बीवी ने आत्म हत्या कर ली , मालुम चला की समधिन से बाजीकरण नुस्खे आजमा लिए थे बिसंभर सिंह ..! और छोटा बेटा पढाई के दौरान ही पिताजी से कोसों दूर निकल चूका था ..! अर्थात बिन महरिया के पारिवारिक जीवन जी रहे थे ..शायद यही छूट उनकी रसिकता का कारण बन गयी ! बिशम्भर सिंह रस रसायन के अलावा पान के बड़े शौक़ीन थे सो हमेशा ज़र्दाया पान उनके होठों पर रचा रहता था ...! खैर , एक बार बिशम्भर सिंह अपनी याददास्त को दुरुस्त करते हुए बोले , मैंने बचपने में  खूब पहलवानी की लंगोट के पक्के थे सो कोई पहलवान सटता  नहीं था ...! आस पास के गाँव के दंगल जीतकर पहलवानों को जूते के नीचे रखते ..एक बार बड़ा पहलवान आया आज तक हारा नहीं था ११ रूपए का इनाम था ..सो तयारी में जुट गए ..मैंने उस्ताद से कहा की कैसे हराएंगे ? सो वे भी चिंतित हो गए उन्होंने कहा की एक रूखड़ी है अमावस की रात को बीहड़ में चले जाना वहीँ से ले आना फिर उसका प्रयोग बताऊंगा ....! बिसंभर सिंह गहरी सांस छोड़े , फिर बोले ..का कहें भैया रात के अँधेरे में गाँव से बीहड़ के लिए डांग गए अकेले गए' निशा वैजयन्ती ' खोजने ...जड़ लानी थी टोर्च भी काम नहीं कर रही थी ...! डर डकैतों का नहीं , बस सांप , बिच्छुओं का था ...इतने में दो चमकती आँखें दिखाई दी डर के मारे पैर काँप गए ..लेकिन हिम्मत से काम किये और तेजी से चिल्लाये ( जो डर से अक्सर हो जाता है ) लेकिन  आँखें मेरी और ही बढ़ी आ रही थी ...क्या करते हनुमान जी को याद किया ..लेकिन कोई काम नहीं बना ..लगता था कोई खतरनाक शैतान था जो अमावस की रात में मेरा ही इंतज़ार कर रहा था ..हम दमसाधे खड़े रहे जब   वे आँखें मेरे बगल से गुजरी तब देखा की एक बिल्ली थी ..तुरंत डंडा घुमाया और जोर से फटकारा बिल्ली मियाउन ... करके भागी और फिर रूखड़ी लेकर हमघर आगये ..." ..इति बिसंभर उवाच .....

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

सुख लाल बाबू.....

गपोड़ी कला गहरे यथार्थ को भी समाहित किये होती है ...भले ही वह यथार्थता कल्पना के आधार पर खड़ी होती है ..! आज गपोड़ी कला की श्रंखला में आ रहे हैं ..गपोड़ी सुखलाल ....! जब मैं अपने मेडीकल के पारिवारिक व्यवसाय में सहयोग कर रहा था , उसी दौर की बात है ...! दूकान के सामने डॉक्टर साहब की दूकान थी ...और उनके यहाँ सुखलाल जी , कम्पाउन्दर के रूप में सेवाएँ दे रहे थे ..! चिकत्सकीय अनुभवों के आधार पर वे स्वयम को डॉक्टर से कम न लगाते थे ..हाँ लेकिन स्वयं एक विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे ...! कहने की बातें हैं .., बकौल सुखलाल शहर के सारे नामी डाक्टर उन्हें नाम से जानते थे ...! और ये तो डाक्टर साहब पर एहसान था की उनकी क्लीनिक पर सेवाएँ दे रहें थे .....! सुखलाल , बिकलान्गता के शिकार थे l लेकिन उनकी कार्य क्षमताओं पर कोई सवाल नहीं था ...! गुटखे के खासे शौक़ीन थे ...दांत आदिम ज़माने की धरोहर लगते थे ...शरीर की वलिस्ठता को ये उरई के गुटखा निर्माता लूट ले गए ....! खैर एक बार सर्दी के समय सुखलाल दूकान पर आये हुए थे ...उन्होंने एक मजेदार बताई ..., एक बार सी एम् ओ साहब दौरे पर अपने साथ ले गए ..और सारे वरिष्ठ डाक्टर से ज्यादा सम्मान देते हुए अस्पतालों के निरीक्षण का ज़िम्मा सुखलाल को दे दिया , ..उसी दौरान कई डाक्टर अनियमितता के चलते विभागीय कार्यवाही के शिकार हुए थे ..बकौल सुखलाल , वे सारे नोटिस उन्होंने ही जारी के कराये थे ....!

अनिल बबुआ ....

गप्पें कुलांचे मारती हुयीं कब अपने अस्तित्व को मिटा लेती हैं मालुम ही नहीं पड़ता , और गपोड़ी अपने रथ को कुशल सारथी की भांति हांकते हुए अंतत: पहुंचा ही देता है आपको , जहाँ उसे पहुँचाना होता है ....! गपोड़ी श्रंखला में आजके नायक है अनिल बाबू ....! बचपन में हम सब साथ ही खुराफाती जीव थे ..मोहल्ला भर हलकान रहता था ..घर के पीछे बसी ऑफीसर कालोनी में क्या जज , और क्या कलेक्टर सबकी अमिया हमारे पेट के गोदामों दफ़न हो जाती थीं ..उसी समय हमारे मंडी के मैदान में मिटटी भराई का काम चल रहा था .. देर रात तक दूधिया रोशनी में हम सब कल्पनाओं के पंख लगाये उड़ते .....! भूत , प्रेत , ज़िन्द . खबीश , चुड़ैल ..सब हमारी जेब में होते ...! अनिल के समान हम सभी सिंगल चेसिस बाली गाडी ही थे ..जिनके एवरेज पूछो ही मत .... ! बहुत दुनिया दारी तो जानते न थे ..लेकिन देश जैसा कुछ होता है यह १५ अगस्त , २६ जनवरी से जरूर जान गए थे...यही वह समय था जब आतंकी घटनाएँ कभी कभार सुनाई देने लगी थी ! ...इन घटनाओं में सीधे पाकिस्तानी हाथ को बताया जात था ..सच्चाई से हमें क्या मतलब ..हमें तो बस चढ़ना था सो चढ़ गए ....! अनिल की देश भक्ति हम से कुछ अंगुल ऊपर थी ...वार्ता के दौर में उभरते तनाव को खारिज करते हिये अनिल बिना भारत सरकार को बताये गुप्त सूचना लीक कर दी ...और बताया की हमारे पास ऐसी तोप है जो एक गोले से पाकिस्तान को साफ़ कर देगी ...उसने अमेरिका को भी नहीं बख्सा ( भले ही नहीं मालूम ये आदमी है या औरत ...या देश या मोहल्ला , बस सुन लिए तो चढ़ गये ...) कहा की हमारे पास एक ऐसी नालकी है की एक बार चल्येदें तो अमेरिका ख़त्म हो जाए ...! हमारी जान में जान आई चलो बच तो गए नहीं तो पता नहीं क्या होता ...बस फिर खेल की योजना ...प्रारंभ हो गयी ....!

बंटई लाल ...

गपोड़ी कला में कल्पना कब कुलांचे मारती अपना अस्तित्व मिटा देती है ..और कब वह हकीकत लगने लगती है इसे कोई नहीं समझ पाता ..., बस वह आपकी भावनाओं में एकाकार हो जाती है ....गपोड़ी अपनी कला के प्रति बहुत ही बिनम्र होते हैं भाव ऐसे की ....बस नारद की संगत ..! आज गपोड़ी कथा में पेश हैं बंटई लाल ....!उनकी उम्र तब ४५ के आसपास रही होगी हम स्कूल में थे कक्षा ९ की बात है ....! सन शायद ८६ ही रहा होगा ..खैर बंटई लाल का बजन ४० किलो के आस-पास रहा होगा कद काठी भी औसत से कम ..रंग गोरा और मूंछें हलकी ..दाड़ी हफ्ते में एकाधबार बन जाती थी अक्सर सफ़ेद कुरते पाजामे पाए जाते थे ..हाँ सफ़ेद रंग तो अहसास भर था ..सेष रंग उनके परिश्रम को दर्शाते थे ..मुहं छोटा और आँखे धंसी हुयीं ...लेकिन बड़ी आशावान ...! दोपहर में स्कूल का मध्यांतर होते ही मेरे जैसे कई नव किशोर आशाओं के दीप कल्पना में लेकर बंटई लाल की रेहडी पर खड़े हो जाते थे ..रेहडी मक्खियों से भरी होती थी और उन्हें उड़ाने का उपक्रम मात्र किया जाता था ..रेहडी पर छोटी-छोटी टिकियाँ मिलतीं थी ..मक्खियाँ उड़ाने में हम लोग भी तत्परता दिखाकर इस लालच में हाथ बंटाते की बंटई लाल एकाध टिक्की ज्यादा दे देंगे ..लेकिन मानना पड़ेगा उनकी याद दाश्त को, किसी को कभी भी तिल भर ज्यादा नहीं दिए होंगे ...! और हाँ... हिसाब - किताब में मुहं जुबानी हम सभी के नाम से उधारी खाते रटे पड़े थे किसी का हिसाब २-३ रुपये से ज्यादा न था तब भी ..रकम तो होती ही थी ..! बंटई लाल ने टिकियाँ देते हुए एक बार बताया की , तुम लोगों से पहले एक लड़का पढता था उसका नाम लखन लाल था ..लखन को टिकियाँ बहुत भाती थीं ..एक बार उसने अपने दोस्त से शर्त लगाईं की वो अकेले ही पूरी टिकियाँ खा जाएगा..., न खा पाया तो शर्त का पैसा बंटई लाल और दोस्त में बाँट दिया जायेगा ! टिकियाँ दस किलो से कम तो न होंगी ....५ रुपये की शर्त थी , सो टूट पड़े लखन लाल .लेकिन वे टिकियाँ खाते रहे और टिकियाँ बढती रहीं ..टिकियाँ ख़त्म होने का नाम ही नहीं लें रहीं थी ..हार गये लखन लाल ..और ऊपर -नीचे दोनों तरफ से चालू होगये ....तुम्हें तो मालूम मेरे ऊपर भगवान् की कितनी कृपा है ...बस इतना कहना था ..की हम लोग भी जेबें टटोलने लगे कहीं भगवान से हमारी शिकायत न हो जाये ....और हम भी लखन लाल न बन जाएँ ....

बिरजू भैया ....

कला दीर्घा में गपोड़ी कला को सम्मान प्राप्त है या नहीं ये तो पता नहीं ...लेकिन इस कला के कद्रदान बहुत है ..मजे की बात यह है की इस कला को हर खासो आम में पसंद किया जाता है ,,,,! चलिए गपोड़ियों की जमात में सम्मिल्लित आज के किरदार बिरजू की चर्चा करते हैं ...! बिरजू को अपने नाम के साथ अपनी जाती सूचक शब्द को लगाना खासा पसंद है ..उनका मानना है की , जो है सो है उसे क्या छुपाना ..! उनके विचार प्रसंशनीय हैं ..! खैर बिरजू की काम की गति अधिक है ...वह किसी भी काम को अन्य कामगारों की तुलना में दोगुनी तेजी से निपटाता है ...बीडी हमेशा सुलगती रहती है ...अंदाज़ में लगभग उसी प्रकार ....'हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया .....! बिरजू कुछ साल पहले ही शादी-शुदा होने का गौरव पाए थे ,,ससुराल की सम्पन्नता कभी सोची नहीं ..सो जो मिला संतोष कर लिए ....कहते थे की उनका साला ( गाली नहीं, रिश्ता ) बहुत कमेरा है ..साली भी ठीक है लेकिन सास थोड़ी ढीली है ...ससुर का तो बस नाम ही सुना ..! अपनी ससुराल पर जान छिडकते हैं ... बिरजू बाबू ..कोई गलती से भी बुराई करे तो बस कमर कस लेते हैं...ससुराली बिप्पन्नता को उजागर नहीं होने देना चाहते ...बिरजू ..तभी एक दिन तैश मैं आकर कह दिए...., ' तुम लोगन को मालुम नाहीं जब हमारी ससुराल में बटवारा हुआ रहा तब पसेरी भर गहने मिले रहे हमारी सास को ...लेकिन सास इतनी धार्मिक रही की कौन्हू मंदिर में चुप्पै धर आयी .....! '

सोमवार, 16 जुलाई 2012

कमलेशी अम्मा ....

गप्पें आख्यान होती हैं ..ये भाव प्रवणता में किसी अन्य विधा से कम नहीं होती ..चाहे वह किसी भी साहित्यिक जगत में देख लें ...खैर , गपोड़ी श्रंखला में आज की पात्र हैं कमलेशी अम्मा ...अम्मा मुझे बचपने से प्रभावित करती रहीं हैं ..स्थूल काया, काला रंग ..चलते समय पैर खींचने की आवाजें ..कपडे अक्सर अस्तव्यस्त रहते थे खाने की खूब शौक़ीन जान पड़ती थीं ..अम्मा ....!कमलेशी अम्मा के पैर हमेशा फटे रहते थे और हाँ उनका चेहरा चेचक माता की कृपा पा चुका था ..घर के बारें में बहुत याद नहीं पड़ रहा..बस वे लोगों के यहाँ अक्सर काम करने जाती थी ,,,..कमलेशी अम्मा गृह कार्यों में बहुत दक्ष थी ...लेकिन एक बार बिगड़ जाती थीं तो इन्हें समाहलना बहुत मुश्किल होता था ..बचपने में हम भी कम शरारती न रहे होंगे शरीर पर चोटों के निशान इसकी चुगली करते हैं ...मेरी और कमलेशी अम्मा की खूब छनती थी ..इसका कारण उम्र की समानता तो बिलकुल नहीं होगी शायद वे मेरे स्वभाव को पसंद करती थीं ..अम्मा की मुझे एक बार की बात याद आ रही है ...अम्मा अपने बचपने में चली जा रहीं थीं ..बोली की मेरा गाँव चम्बल किनारे है जब हम छोटे थे तब नदी में नहाने जाते ..., एक बार की बात है हम सब लोग नहा रहे थे तभी एक मगर आ गया रेल जैसा लम्बा .....दांत खूब बड़े बड़े ..मुहं खोले तो आग बरसे ..." मगर जैसे ही हमाये पास आओ हमऊ ने बाकी पूंछ पकरके ऐसे घुमाई ताके बाद बाने पट्टी दई ता दिना से अबे नो कौऊ मगर हमाये गाँव के धिंगा दिखाई नहीं दओ .......

रविवार, 15 जुलाई 2012

बाबा रति लाल ....

गपोड़ी बे- लगाम होते हों ऐसे मुआमले कम ही दिखाई देते हैं हाँ ..वे अवसरों की बाट जोहते हैं फिर शुरू हो जाते हैं ..अक्सर शादी -विवाह के अवसर पर खलिअरी के समय ..या .अंतिम संस्कार के दुखद घटना क्रम में मैं भी वे सर्वमान्य वक्ता माने जाते हैं ...रति लाल बाबा कह्लेते हैं इन्हें ..ध्यान आ रहा है ...इलाहाबादी घटना ...सन९६-९७ रहा होगा मैं इलाहाबाद में सपने पाल पोश रहा था ..इसी दौरान मेरे प्रतियोगी अग्रज प्रमोद सोनकर, जो आजकल डी..एस.पी. मध्यप्रदेश शासन हैं ..इनकी दादी का निधन हुआ और हम सभी मित्र अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने गए ...वहीँ मुलाकात हुयी रति लाल से ..प्रभावित पक्ष के रिश्तेदार तो न थे ...फिर मालूम पड़ा की ये अंतिम संस्कार स्पेशलिस्ट हैं ..जो घाट पर खुद ही आ जाते हैं ...लकड़ी कहाँ कितनी लगनी है ..शरीर की माप के अनुरूप चिता कैसी बनानी है ..कंडे कहाँ लगने हैं ..घी कब डालना है ..दिशा निर्धारण ..सब मुह जवानी था ...अपने अनुभवों को बताते हुए बाबा रति लाल हांक देने लगे .." एक बार नई शादी बाली महिला का अंतिम संस्कार कराया ...और जब मैं रात को घाट पर आया तो बो मुझे अपने गहने देने लगी .. मैंने मना किया फिर भी नहीं मानी ..बोली मैं तो पहन न सकी तुम अपनी बीबी को पहना देना ..मैं तृप्त हो जाउंगी ..का करी भैया..आत्मा की शांति के खातिर ई सब करी पडी ..... ..डर के मारे रात भर हमें भी बैचैनी रही और रात भर दिन की घटना याद आती रही ...

जीवन लाल उत्तराखंडी ........

कला जीवंत न हो तो क्या मज़ा गप्प कला सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी होती जहाँ स्वाभाविक इच्छाएं तो मरी होती हैं लेकिन कल्पना सदैव जीवंत रहती है .....खैर आज की गपोड़ी श्रंखला में हमारे पात्र हैं जीवन लाल ...इनसे हमारी मुलाकात दिल्ली में हुयी थी जहाँ एक संस्था में ये सेवा रत थे ..उम्र के लिहाज़ से ये बालिग़ होने से एकाध अंगुल ही नीचे थे हालांकि उम्र का ज़िक्र कभी किया नहीं गया ..लेकिन वोटर नहीं थे सो मान लिया जाता है ....शरीर अंगुल-अंगुल पर खड़े होने की बाट जोह रहा था ..विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकर्ता पता नहीं क्यों नहीं इन्हें कुपोषण संधान कार्यक्रम के ब्रांड एम्बेसडर बना पाए ...! खैर जीवन लाल उत्तराखंड के मूल निवासी थे और वहां की कई परम्पराओं का ज़िक्र कर गुद्ग्दाते लेते थे ! ..दिल्ली के छाया में पल्लवित होते-होते छोले - कुलचे की जुगलबंदी के मुरीद हो गए ...! खाने के शोकीन दिखाई पड़ते थे लेकिन कमबख्त जेब जीभ पर लगाम खींचे खड़ी रहती थी ..! एक बार जीवन ने बताया ..सर हमारे यहाँ की एक शादी में बड़ी तपेली भर कर रबड़ी रखी थी ....और मैंने ५ मिनट में रबड़ी का नामो निशाँ मिटा दिया ..उसके बाद बारात में भी दम से चटाई की ... ..मैंने उसकी तरफ आश्चर्य से देखा सिर्फ इतना सोच पाया की फिर भी सलामत रहा ....

करामाती चाचा .....

गप्पें मारना भी एक नशा है जी, ..लत है ..,जिसे लग गयी तो कोई नीम हकीम इससे मुक्त न करा सकेगा ..!गपोड़ियों में चुम्बकीय प्रभाव होता है कभी ये आपकी तरफ आकर्षित होते हैं तो कभी आपको अपनी और आकर्षित करते है ..मतलब हर हाल में इन्हें आपसे चिपकना है ...! तो आज इस गपोड़ी श्रंखला को बढ़ाते हुए पेश है नए गपोड़ी ...बीरभान चाचा ...मेरे ही नहीं जगत चाचा है ..उम्र भले ही कम है लेकिन इनके जनक भी इन्हें चाचा ही कहते हैं ...! यह उपाधि है या पालतू नाम आज तक भ्रम है ..लेकिन बीरभान नाम इन्हें खुद भी नहीं मालुम रहता ..बे स्वयम भी चाचा नाम से ही आक्रष्ट होते हैं ..! खैर तो चाचा की शारीरिक संरचना केले के तने के समान सपाट है ...रंग भी केले सा धवल है ...लेकिन आँखों पर चड़ी आंखें थोड़ी सी बुद्धिजीविता की और अग्रसर कर देती हैं ...चाचा बड़े ही कलाकार जीव हैं मलाई काटना उन्हें अच्छे से आता है चूँकि अभी शादी नहीं हुयी सो स्वयम को किस्मत वाला मानते हैं ...! कहते भी हैं शादी मतलब पंगा ...आजकल स्थानीय चुनाव में मौज ले रहे हैं ..हर प्रत्याशी उनका अपना है ...सभी को आश्वासन दिए हुए हैं ..महापौर से लेकर सभासद तक सब उनकी मर्ज़ी से बनेंगे तय है ...! चाचा की करामाती जेब में बहुत सी ताबीज़ें रखी हुयी हैं और बे अपने ख़ास प्रत्यासियों को ( जो सभी हैं ) मुफ्त में दे रहें हैं ..! हर किसी के लिए कह देते हैं की खास बाबा से खास दरगाह से बनबाये हैं और कोई हरा नहीं पायेगा ..! सभी चमत्कार की आस में आश्वस्त हो कर सर माथे लगाये ताबीज़ बांधे घूम रहे हैं ..! चाचा ने बडबोले पन में हांकते हुए एक पट्टी के सारे वोट एक खास प्रत्यासी के नाम करने की बात कही ....चाचा की हांक जब ढीली पड़ गयी , जब मालूम पड़ा ये पट्टी तो इस वार्ड में ही नहीं ...चाचा पैंतरा बदलते हुए कहे ये विरोधियों की चाल है जो वार्ड ही बदल दिए ..! चाचा का दांव खाली पड़ते ही सुरती दवाये नई जुगाड़ में गुन गुनाते हुए निकल लिए ....

मोहन प्यारे ......

गपोड़ियों की अदा बड़ी ही निराली होती है ..ये चिहुँकते से बैठते हैं .....मौका लगा और लगाया चौका ..खैर, ... बोले नहीं तो कैसे रोटी हज़म हो? ...इसी श्रंखला में आज के गपोड़ी हैं मोहन लाल , पेशे से ट्रोली चालक हैं ..मुहं चुसा हुआ आम सा दिखाई देता गुटखा कभी इनसे बिमुख रहा हो शायद याद नहीं ! भाव भंगिमाएं पहुंचे हुए बुद्धिजीवी की लगभग हर उत्तर की प्रतीक्षा में लम्बा समय देना पड़े ..! और हां ये स्वयं को कुशल ईश्वरी उपासना का साधक मानते हैं इसी भ्रम वे स्वयम को तांत्रिक विद्या का ज्ञाता मानने लगे! उनके ज्ञान पर संदेह करना इस विधा का अपमान होगा ..लेकिन कभी कोई कार्य उनके द्वारा फलित हुआ हो इसकी सूचना किसी भी दस्तावेज में दर्ज नहीं है ...! फिर भी वे स्वयं को बड़ा तांत्रिक ही मानते हैं ...! कभी-कभी तो किसी भाड़े को लेकर देवता और जिन्न छोड़ने तक की बात करते हैं ...., लेकिन उनके देवता इतने दयालु हैं की आज तक किसी ग्राहक को क्षति नहीं पहुंचाए ..अलबत्ता मोहन बाबू ही कभी-कभी देवता को किसी दिन विशेष पर भूँखा रखने का भय ज़रूर दिखा देते हैं ...! मोहन लाल गुटखा दवाते ही दिव्य ज्ञान के स्वामी हो जाते हैं इसी क्रम में एक दिन उन्होंने एक विशेष प्रकार की लकड़ी का ज़िक्र किया , कौवे के घोंसले में एक ऐसी लकड़ी होती है जो दुर्लभ है ..और किसी -किसी घोंसले में ही मिलती है ..इसकी पहचान यह है की पानी में तेज़ भागती है ..बिलकुल सांप की तरह ..तांत्रिक अगर अमावस्या को गंगा में इस लकड़ी को लेकर साधना करें तो उन्हें बहुत शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं ....! मैंने पूछा मोहन कभी तुम्हे मिली ऐसी लकड़ी , मायूस होकर बोले....' का भैया ट्रोलिया चलायी की लकड़ी ढूँढी......' गुटखा दवाए मनोहर नए ग्राहक की बाट जोहने लगे ......

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

इन्दर भैया ...वाह!

गपोड़ी सीमाबद्ध नहीं होते ये असीम है ..इसीलिए ये हर जगह हर माहोल में मिल जाते हैं ..! गपोड़ियों के साक्षात्कार क्रम आज के गपोड़ी हैं इन्द्र प्रकाश ..स्वयं को इन्दर को कहलाना पसंद करते हैं ....! पता नहीं उन्हें इस नाम से इतना मोह क्यों है ..हालांकि वे नाम के अनुरूप वे स्वयम को चरितार्थ कर पाए हों इसमें संदेह है ...! हां तो इन्दर से गाहे -बगाहे मुलाक़ात हो जाती है जब हम पडौस की दूकान पर चाय पीते हुए मिलते हैं ! साईकिल सवार इन्दर क्या करते थे ये तो मालूम नहीं लेकिन आज कल धर्म पर बड़ी ही आस्था प्रकट करते हैं ..जो उनके विचारों से दिख जाता है ...! .." ससुरी लक्ष्मी सनीचरी होए गयी ..बान्ध्वेउ से नहीं बंधती ..." ये उनका भाव था ..अर्थात वे व्यापक अर्थवाद के समर्थक और लक्ष्मी के स्वाभाविक पुजारी लेकिन मलाल यही था की इतने जतन के बाद भी ..लक्ष्मी की कृपा नहीं मिल पा रही ..! आज कल शायद दारागंज में कहीं किसी प्रयागी पण्डे का सानिध्य प्राप्त कर रहें हैं ...और उस से कुछ अतिशय कारी गुण सीख रहे है ..! उनकी बातों से लगता है की वे कभी खुशहाल वैवाहिक जीवन भी जिए होंगे लेकिन उनके मानसिक पलायन और कुंठित मनोदशा ने उन्हें इस संस्था से मुक्त करा दिया शायद इसीलिए उनका धर्म के प्रति अनुराग इस कदर बढ़ गया ...! एक बार उन्होंने बातों -बातों में स्वयं को तमोली समुदाय का बताया था ..और थोड़े सामंती होते हुए कहा की महोबा के निकट कहीं ज़मींदारी थी उनके परिवार की ..और वहीँ कहीं पान की खेती भी होती थी ..! लेकिन आज़ादी के बाद सब सत्यानाश हो गया ..! एक भारी भरकम गाली देते हुए सरकार को कोसने लगे ....लेकिन ठसक दिखाते हुए कहा की ..ददुआ हमाये पायें छूअत हतो...( दस्यु ददुआ पैर छूता था ) इसी आत्म संतोष के साथ वे साइकिल की घंटी बजाते हुए नया आइटम सोंग गाते हुए निकल लिए ...!

शिवराम भैया की हसरत .....

कुछ विचारक दुनिया को रंग मंच मानते हैं ..! मानने में बुराई भी नहीं है ..क्या फर्क पड़ता है रंगमंच मानो चाहे सर्कस ...! खैर अगर रंग मंच है तो पात्र भी बड़े उम्दा हैं ..स्वयम उम्दा तो बन नहीं पाए लेकिन कुछ उम्दा लोगों की सोहबत ज़रूर मिलती रही ..! सो सांगोपांग विवेचन करते हुए उन्हें स्मरण करने का प्रयास कर रहा हूँ ..! हमारे पडौस में गपोड़ों का अड्डा है जिसमे एक प्रसिद्द गपोड़ी हैं ..शिवराम जी .! उम्र के लिहाज से वे बड़े भाई कहे जा सकते हैं लेकिन शारीरिक संरचना उनेह पितृ तुल्य वर्ग में समाहित करा देती है .., हाँ ४८ से ज्यादा तो न होंगे ..बीड़ियाँ इतनी फूंकी की दमा से दोस्ती हो गयी और तपस्वी शरीर से कृष काय हो गए ..! कभी-कभी काया की भी बड़ी माया होती है ..एक बार उनकी हम उम्र ने उन्हें बाबा कह दिया बेचैनी में रात भर सोये नहीं ...और अगले दिन चाँद पर चंद बाल जो अपने होने का अहसास मात्र थे ...अचानक काले नज़र आने लगे ! इस परिवर्तन का राज़ दार सिर्फ मैं था ..! वे स्वयं को विश्विद्यालय से एम्.कोम. पास बताते थे ..लेकिन इसमें संदेह था क्योंकि उनका अक्षर ज्ञान और वर्तनी दोष अक्सर कक्षा १० से आगे बढ़ने की इजाज़त न देता था ...! खैर क्या करना जब राज निर्माता झूठ ठोंक सकते हैं तो वे तो शिवराम ही हैं ..! उनका दावा था की स्व. श्रीमती राजेंद्री बाजपई उन्हें अपना बेटा मानती थी ..इसलिए वे ' हाथ ' से 'हाथी' पर स्थान्तरित हो गए ....और आज कल 'साइकिल' की सवारी की तयारी कर रहें हैं ...! उसके पीछे भी राज यह है की , ..आज कल हाथी माथी में दम नाही...बेरोज़गारी भत्ता चाही तो साइकलिया चलाई की पड़ी...." सो आज कल वे इटावा- भिंड वालों से स्वाभाविक आत्मीयता बढ़ाते हुए भोजपुरी से भदावरी ज्ञान की और अग्रसर हो रहें हैं ...

चमत्कारी सुरेन्द्र भैया .....

गपोड़ी कभी निरर्थक प्रयास नहीं करते ..वे भांपते हैं तब दागते हैं ...! जो उसकी ज़द मैं आजाये ये दोनों की किस्मत पर निर्भर करता है ..! खैर आज गप्पों ताजदार है सुरेन्द्र गपोड़ी ...! सुरेन्द्र भैया किस्मत के धनी थे सो खड़े होने के लिए बहुत मेहनत नहीं करनी पडी ..बस एक समस्या उनके साथ हमेशा देखि गयी की वे सरकारी आंकड़ों को चबाकर उसकी नयी व्याख्या करके बाबुओं  , अधिकारीयों सभी की कहानी लगा देते थे ..! और किसी की कभी बात मानें हों इसके लिए तो भगवान् बगलगीर हो जाता था ..सो यही खासियत उनकी शख्सियत को नयी पहचान देती थी ..! भगवान का सानिध्य दिन भर प्राप्त करते थे गले में ताबीज़ , हाथ में मंत्रित कडा , माथे पर लंबा सा टीका ..जिसका रंग प्राय बदलता रहता ..! भैया साल भर कोई न कोई अनुष्ठान करते रहते थे ..सो इस बात का गुमान था की देवता लगातार उनके साथ रहते हैं ..! दूकान पर टांगी गयी काली की तस्वीर के इतने पैर छुए गए की उतने हिस्से का रंग उजला हो गया ...! मन्त्र मुहं ज़ुबानी याद थे वशीकरण , फ़ैल-पास , लाभ-हानि ..सब कुछ उनके कहे अनुसार हो जाता ...यह बात अलहदा है की कभी इनमे से किसी के लिए भला नहीं करा पाए ..! वानगी यह की , देवता रूठ जाते हैं ..सो इस चाल से सबको धकिया देते थे ...! अगरबत्ती , धूप बत्ती की गंध पाते ही  देवता इनके सर पर खड़े हो जाते और वे सुरेन्द्र भैया से आदेश चाहते ..चेहरे  के हाव- भाव पहुंचे हुए तांत्रिक से ...उनकी अदाबाजी से बन्दर भी शरमा जाए ..ऐसी भाव भंगिमाएं लेकर उनके देवता आते ..! अजीब सी आवाजें  भी देवता की ही निकलती ..बेचारे सुरेन्द्र तो अनजान थे इन सबसे ..देवता अगरबत्ती की  गंध सूंघे फिरता ..फिर इनके सर चड़ता तब भैये जीभ निकालते ..तो कहते काली आई , पेट उमेंठ्ते तो कहते जिन्न बाबा आये , हाथ रगड़ते तो कहते खान सरकार आये ...बस बारी - बारी से सब उनके दर पर दस्तक देते और काम की बाट जोहते ...! एक बार की बात है दूकान के बाहर एक अधेड़ गर्मी से गश खा गिर गया ..सुरेन्द्र भैया उठे और बोले प्रेत ने पकड़ लिया ..ठीका -ठीक दोपहर में निकला है ..राशि मिल गयी ..फिर मंगाया भैया ने निम्बू , सिंदूर , लोंग , पान का पत्ता , जायफल , मिठाई ...और देवताओं का दौर शरू हो गया ..बारी से बारी से देवता हाजिरी बजाते और उस अधेड़ की कई समस्या सुनाते ..वो बेचारा अचेत लेकिन भैया .पुरी तरह मुस्तैद ..भैया .की भंगिमाएं बिकराल होती जा रहीं थीं ..जो देखता सो घबरा जाता ..बस इसी मौके की फिराक में थे ..अचानक भैया की हरकतें शिथिल हो गयीं ...  जयकारा लगने लगा सच्चे दरवार का ..अचानक भैया की आँखें खुलीन कुछ जायजा ले रहीं थी ..देखा अधेड़ अभी भी लगभग  बेहोश है सो लोटे से पानी निकाल कर मंत्रित कर छींटे मारे ..मुहं में थोडा पानी डाला ..और निम्बू चटाने की हिदायत दे दी ..यथा योग्य आदेश का पालन किया गया और अधेड़ की चेतना लौटने लगी ...ताली मारकर सुरेन्द्र भैया बोले , ' जे देखो मैया पकड़ ले आई ..वाह री मैया परमेश्वरी जमराज से बचा लायी ..जैकारा   शेरों वाली का ..जय हो ..' ! अधेड़ मामला समझ न पाया ..लेकिन लोगों को सुरेन्द्र भैया पर अटूट भरोसा हो गया ..और उनकी रेडीमेड की दूकान चल निकली ..! काश वे पहले ही पानी के छींटे  मारकर निम्बू पानी पिला देते तो बेचारा जल्दी  आराम पा जाता ....!  

बकील बाबू ..जय हो ..

http://www.facebook.com/ranish.jainबात हो ही रही है तो हम भी कह लेते हैं ..बैसे कहना और सुनना दोनों ही बड़े ही लाजवाब काम हैं ! ..कहने वाला उगलने को आतुर रहता है और ..सुनने वाला बचने को ..! खैर कहा सुनी की बात है ..देश कचेहरियों की दम पर चलता है इसमें कोई शक नहीं ..अब कोई अब्मानना न ठोक देना नहीं तो कहा सुनी के चक्कर में लेने के देने पड़ जायेंगे ..हाँ तो चलता है ....जिसमे कोई मुब्बक्किल होता है ..,और कोई उकील ( बकील ) बाबू ..और कोई जज महोदय ...मैं आज तक कोतवाली से कचेहरी तक का गणित नहीं समझ पाया ! मैं आज मनोहर प्रसाद का एक वाकया सुनाता हूँ ....मनोहर प्रसाद तीन बेटियों के बाप हैं ..लाचार कहे जा सकते हैं ..समाज उन्हें बेचारा भी कह लेता है ..तो हम भी मान लेते हैं ...! दुबले पतले सींक सी आस्तीनों वाले पान खवुआ मनोहर बड़े ही आस्तिक है ..यह मिज़ाज़ अपनी माता जी से बचपन में पाए थे ..कहते हैं मनोहर के लिए माता जी पडिला महादेव ( इलाहबाद ) खूब पूजी थी तभी ये अवतार लिए थे ! शंकर का अंश तो न मिला अलबत्ता इन्हें शनि , राहु , केतु खूब हांकते रहे ..आज कल भी शायद इन्ही में से किसी की गिरफ्त में है सो कचेहरी के चक्कर लगा रहे हैं ...गलती से तीन बीघा ज़मीन पा गए वो भी रोड किनारे...सो इनकी किस्मत गुलज़ार होते-होते दबंगों की ज़द में आ गयी ...फिर क्या था बेचारगी तो आनी ही थी ..सो अपने आप चलकर आ गयी ! किस्मत को कोसते मनोहर बाबू उकील बाबू से तगड़ी जिरह की मांग कर रहे थे ...उकील साहब पिच्च..च..च.. करते हुए कोशिश करने का वादा कर रहे थे ....और मुस्कराते हुए स्वयम को कमलापति बनाने की जुगाड़ में खड़े थे ...

भैया रामचरण ..

कहते हैं, गपोड़ियों की कोई जाति नहीं होती ....लेकिन फिर भी गपोले बाज कहीं न कहीं स्वयं को जाती में बाँध लेते हैं ...! ऐसे ही गपोडे है हमारे रामचरण कहने को 'साठा में पाठा है ' लेकिन सुरती की टपकन हमेशा अदब से उनके साथ रहती है ....टेम्पू से चलना खाशा पसंद है ..कहते हैं आँखों को सही रौशनी मिल जाती है भैया ...! खैर , तो राम चरण हमारे इलाके के प्रसिद्द गपोडे हैं ...जनता जनार्दन अक्सर इनके पास बैठकर इनकी गप्पों का आनद लेती है ! इलाहाबादी गर्मी में रात को इनके पास बैठने का सोभाग्य हमें भी मिला ...चर्चा छिड़ गयी निगम चुनाव और राष्ट्रपति चुनाव की ....रामचरण ने स्पष्ट कहा की, " मालुम नहीं है तुम लोगन को ई बार राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी भी इन चुनावन परही टिकी है ...अगर हमारे भैया पार्षद बनगए तो दा को ..सपोर्ट कर देंगे ......नहीं तो ई बार तो गए प्रणव काम से ....भैया की तगड़ी सेटिंग है ...!!!! जय हो रामचरण की ...काश!!! आपको भी कोई राम चरण मिले ......