मंगलवार, 17 जुलाई 2012

बिरजू भैया ....

कला दीर्घा में गपोड़ी कला को सम्मान प्राप्त है या नहीं ये तो पता नहीं ...लेकिन इस कला के कद्रदान बहुत है ..मजे की बात यह है की इस कला को हर खासो आम में पसंद किया जाता है ,,,,! चलिए गपोड़ियों की जमात में सम्मिल्लित आज के किरदार बिरजू की चर्चा करते हैं ...! बिरजू को अपने नाम के साथ अपनी जाती सूचक शब्द को लगाना खासा पसंद है ..उनका मानना है की , जो है सो है उसे क्या छुपाना ..! उनके विचार प्रसंशनीय हैं ..! खैर बिरजू की काम की गति अधिक है ...वह किसी भी काम को अन्य कामगारों की तुलना में दोगुनी तेजी से निपटाता है ...बीडी हमेशा सुलगती रहती है ...अंदाज़ में लगभग उसी प्रकार ....'हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया .....! बिरजू कुछ साल पहले ही शादी-शुदा होने का गौरव पाए थे ,,ससुराल की सम्पन्नता कभी सोची नहीं ..सो जो मिला संतोष कर लिए ....कहते थे की उनका साला ( गाली नहीं, रिश्ता ) बहुत कमेरा है ..साली भी ठीक है लेकिन सास थोड़ी ढीली है ...ससुर का तो बस नाम ही सुना ..! अपनी ससुराल पर जान छिडकते हैं ... बिरजू बाबू ..कोई गलती से भी बुराई करे तो बस कमर कस लेते हैं...ससुराली बिप्पन्नता को उजागर नहीं होने देना चाहते ...बिरजू ..तभी एक दिन तैश मैं आकर कह दिए...., ' तुम लोगन को मालुम नाहीं जब हमारी ससुराल में बटवारा हुआ रहा तब पसेरी भर गहने मिले रहे हमारी सास को ...लेकिन सास इतनी धार्मिक रही की कौन्हू मंदिर में चुप्पै धर आयी .....! '

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