सोमवार, 16 जुलाई 2012

कमलेशी अम्मा ....

गप्पें आख्यान होती हैं ..ये भाव प्रवणता में किसी अन्य विधा से कम नहीं होती ..चाहे वह किसी भी साहित्यिक जगत में देख लें ...खैर , गपोड़ी श्रंखला में आज की पात्र हैं कमलेशी अम्मा ...अम्मा मुझे बचपने से प्रभावित करती रहीं हैं ..स्थूल काया, काला रंग ..चलते समय पैर खींचने की आवाजें ..कपडे अक्सर अस्तव्यस्त रहते थे खाने की खूब शौक़ीन जान पड़ती थीं ..अम्मा ....!कमलेशी अम्मा के पैर हमेशा फटे रहते थे और हाँ उनका चेहरा चेचक माता की कृपा पा चुका था ..घर के बारें में बहुत याद नहीं पड़ रहा..बस वे लोगों के यहाँ अक्सर काम करने जाती थी ,,,..कमलेशी अम्मा गृह कार्यों में बहुत दक्ष थी ...लेकिन एक बार बिगड़ जाती थीं तो इन्हें समाहलना बहुत मुश्किल होता था ..बचपने में हम भी कम शरारती न रहे होंगे शरीर पर चोटों के निशान इसकी चुगली करते हैं ...मेरी और कमलेशी अम्मा की खूब छनती थी ..इसका कारण उम्र की समानता तो बिलकुल नहीं होगी शायद वे मेरे स्वभाव को पसंद करती थीं ..अम्मा की मुझे एक बार की बात याद आ रही है ...अम्मा अपने बचपने में चली जा रहीं थीं ..बोली की मेरा गाँव चम्बल किनारे है जब हम छोटे थे तब नदी में नहाने जाते ..., एक बार की बात है हम सब लोग नहा रहे थे तभी एक मगर आ गया रेल जैसा लम्बा .....दांत खूब बड़े बड़े ..मुहं खोले तो आग बरसे ..." मगर जैसे ही हमाये पास आओ हमऊ ने बाकी पूंछ पकरके ऐसे घुमाई ताके बाद बाने पट्टी दई ता दिना से अबे नो कौऊ मगर हमाये गाँव के धिंगा दिखाई नहीं दओ .......

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