गपोड़ी भी भगवान की ही देन हैं..लेकिन इनकी इस विधा को सामाजिक स्तर पर उपहास की दृष्टि से ही देखा जाता है ..जब की हकीकत यह है की गपोड़ी जितनी शिद्दत से अपनी कला प्रस्तुत करता है उतना कोई भी विधा का जानकार नहीं करता ..क्योंकि गपोड़ी पूरी तरह मौलिक होते हैं ...! आज गपोड़ियों की श्रंखला के झंडाबरदार हैं ..बेरिस्टर सिंह ..! आम तौर पर पदों के उपाधियों के नाम तभी रखते हैं लोग जब उनके पिता जी मन मसोसे उस पद को लपक नहीं पाते ...! शायद इसी सोच के पैदाईश थे बेरिस्टर सिंह ...! इनसे सरस्वती कभी सधी नहीं ..और लक्ष्मी कभी रूठी नहीं ..अपनी जमीन , अपना मकान ...बस कमी थी तो एक सुघर बीवी की ..अक्सर उसे सोच कर जीवंत से हो जाते ..कहते क्या करूं गुदगुदाहट होने लगती है ....और उसी समय कोई समसामयिक गाना उनके होठों पर आ जाता ..! नौटंकी देखने के शौक़ीन रहे थे ..फिल्मों का भीशौक पाल बैठे थे तब उस ज़माने में सोनी कम्पनी का वी. सी आर. घर उठा लाये जो उनके सामजिक सम्मान का कारण बन गया ..और किराये पर चलाते-चलाते आय का साधन भी ..! बेरिस्टर सिंह के शारीरिक विन्यास में ठकुराई के कोई लक्षण विद्यमान नहीं थे ..बस मूंछों का सहारा था जो उन्हें अपने कुल के करीब रखती थी ...हाँ गालियाँ जरूर थी जो विशेषण रूप में अपने पिताजी तक को भेंट कर देते थे ..सो पिताजी भी इनसे कीप-डिस्टेंस का बोर्ड लगाकर चलते थे ..! एक बार हांका मारते हुए बेरिस्टर बोले ..- " क्या कहें भैया एक बार जब हम छोटे थे तब गाँव में डकैत आ गए ..खूब कुत्ता भोंके ,चिरैयां उडी आदमी रजैया में घुस गओ ...तब हमने स्कूल के बस्ता में से अपनों बेल्ट निकारो और भज के डकेंतन से भिड़ गए ..ताके बाद एकउ डकेत नहीं आओ ...." मैं उनकी बहुदरी के सम्मुख बांकई नतमस्तक था ....!
बहुत ज़बरदस्त गपोड़ियों की श्रंखला पढने के बाद आनंद आया , अभी समय रहते और पढूंगा ..! बहुत सुन्दर !!! वधाई
जवाब देंहटाएं