कला जीवंत न हो तो क्या मज़ा गप्प कला सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी होती जहाँ स्वाभाविक इच्छाएं तो मरी होती हैं लेकिन कल्पना सदैव जीवंत रहती है .....खैर आज की गपोड़ी श्रंखला में हमारे पात्र हैं जीवन लाल ...इनसे हमारी मुलाकात दिल्ली में हुयी थी जहाँ एक संस्था में ये सेवा रत थे ..उम्र के लिहाज़ से ये बालिग़ होने से एकाध अंगुल ही नीचे थे हालांकि उम्र का ज़िक्र कभी किया नहीं गया ..लेकिन वोटर नहीं थे सो मान लिया जाता है ....शरीर अंगुल-अंगुल पर खड़े होने की बाट जोह रहा था ..विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकर्ता पता नहीं क्यों नहीं इन्हें कुपोषण संधान कार्यक्रम के ब्रांड एम्बेसडर बना पाए ...! खैर जीवन लाल उत्तराखंड के मूल निवासी थे और वहां की कई परम्पराओं का ज़िक्र कर गुद्ग्दाते लेते थे ! ..दिल्ली के छाया में पल्लवित होते-होते छोले - कुलचे की जुगलबंदी के मुरीद हो गए ...! खाने के शोकीन दिखाई पड़ते थे लेकिन कमबख्त जेब जीभ पर लगाम खींचे खड़ी रहती थी ..! एक बार जीवन ने बताया ..सर हमारे यहाँ की एक शादी में बड़ी तपेली भर कर रबड़ी रखी थी ....और मैंने ५ मिनट में रबड़ी का नामो निशाँ मिटा दिया ..उसके बाद बारात में भी दम से चटाई की ... ..मैंने उसकी तरफ आश्चर्य से देखा सिर्फ इतना सोच पाया की फिर भी सलामत रहा ....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें