कुछ विचारक दुनिया को रंग मंच मानते हैं ..! मानने में बुराई भी नहीं है ..क्या फर्क पड़ता है रंगमंच मानो चाहे सर्कस ...! खैर अगर रंग मंच है तो पात्र भी बड़े उम्दा हैं ..स्वयम उम्दा तो बन नहीं पाए लेकिन कुछ उम्दा लोगों की सोहबत ज़रूर मिलती रही ..! सो सांगोपांग विवेचन करते हुए उन्हें स्मरण करने का प्रयास कर रहा हूँ ..! हमारे पडौस में गपोड़ों का अड्डा है जिसमे एक प्रसिद्द गपोड़ी हैं ..शिवराम जी .! उम्र के लिहाज से वे बड़े भाई कहे जा सकते हैं लेकिन शारीरिक संरचना उनेह पितृ तुल्य वर्ग में समाहित करा देती है .., हाँ ४८ से ज्यादा तो न होंगे ..बीड़ियाँ इतनी फूंकी की दमा से दोस्ती हो गयी और तपस्वी शरीर से कृष काय हो गए ..! कभी-कभी काया की भी बड़ी माया होती है ..एक बार उनकी हम उम्र ने उन्हें बाबा कह दिया बेचैनी में रात भर सोये नहीं ...और अगले दिन चाँद पर चंद बाल जो अपने होने का अहसास मात्र थे ...अचानक काले नज़र आने लगे ! इस परिवर्तन का राज़ दार सिर्फ मैं था ..! वे स्वयं को विश्विद्यालय से एम्.कोम. पास बताते थे ..लेकिन इसमें संदेह था क्योंकि उनका अक्षर ज्ञान और वर्तनी दोष अक्सर कक्षा १० से आगे बढ़ने की इजाज़त न देता था ...! खैर क्या करना जब राज निर्माता झूठ ठोंक सकते हैं तो वे तो शिवराम ही हैं ..! उनका दावा था की स्व. श्रीमती राजेंद्री बाजपई उन्हें अपना बेटा मानती थी ..इसलिए वे ' हाथ ' से 'हाथी' पर स्थान्तरित हो गए ....और आज कल 'साइकिल' की सवारी की तयारी कर रहें हैं ...! उसके पीछे भी राज यह है की , ..आज कल हाथी माथी में दम नाही...बेरोज़गारी भत्ता चाही तो साइकलिया चलाई की पड़ी...." सो आज कल वे इटावा- भिंड वालों से स्वाभाविक आत्मीयता बढ़ाते हुए भोजपुरी से भदावरी ज्ञान की और अग्रसर हो रहें हैं ...
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