बुधवार, 18 जुलाई 2012

बिशम्भर भईया ....


गपोड़ी पीड़ा को पीकर जीते हैं ..बिंदास और अमर बोल रखते हैं ...बस उन्हें पहचान का संकट मंडराया रहता है ..सो बस ...खैर आज के गपोड़ी महाराज हैं बिशम्भर सिंह ...! जाति व्यवस्था से कभी मोह नहीं रखा सो सर्वग्राही बने रहे ..कहतें हैं की रास रसय्या के समान ये भी तमाम बालाओं पर अधिकार रखते थे ..अक्सर दुकान से शिलाजीत के केप्सूल लेने आते ..! वाजीकरण के जितने नुस्खे चरक , नागार्जुन नहीं खोज पाए उस से ज्यादा नुस्खे मुह जुबानी याद थे ....! तिल , तिला , भस्म , बूटी , पाक ..सब के बारे में एक वैध से ज्यादा जानकारी रखते ...! तमाम आयुर्वेदाचार्यों की गलत वयानी जेब में रख कर टहलते ..मजाल है की इलाके कोई वैध उनसे परिचित न हो ..मीन मेख निकलने में माहिर थे बिशम्भर सिंह ..! पैसे की गर्मी थी सो अक्सर बसंत कुसुमाकर , बसंत मालती . स्वर्ण भस्म ..एक साथ थोक के भाव ले जाते ...! लेकिन आश्चर्य की बात थी बाजीकरण के माहिर खिलाड़ी की तंदरुस्ती कोई ख़ास नहीं थी ..! अगर वे पैसे की गर्मी और दुनाली साथ न रखें तो कोई उन्हें टके भाव भी न पूछे  ...! पारिवारिक विन्यास विखराव बाला था ..बीवी कम उम्र में ही चल बसी .., बड़े बेटे की बीवी ने आत्म हत्या कर ली , मालुम चला की समधिन से बाजीकरण नुस्खे आजमा लिए थे बिसंभर सिंह ..! और छोटा बेटा पढाई के दौरान ही पिताजी से कोसों दूर निकल चूका था ..! अर्थात बिन महरिया के पारिवारिक जीवन जी रहे थे ..शायद यही छूट उनकी रसिकता का कारण बन गयी ! बिशम्भर सिंह रस रसायन के अलावा पान के बड़े शौक़ीन थे सो हमेशा ज़र्दाया पान उनके होठों पर रचा रहता था ...! खैर , एक बार बिशम्भर सिंह अपनी याददास्त को दुरुस्त करते हुए बोले , मैंने बचपने में  खूब पहलवानी की लंगोट के पक्के थे सो कोई पहलवान सटता  नहीं था ...! आस पास के गाँव के दंगल जीतकर पहलवानों को जूते के नीचे रखते ..एक बार बड़ा पहलवान आया आज तक हारा नहीं था ११ रूपए का इनाम था ..सो तयारी में जुट गए ..मैंने उस्ताद से कहा की कैसे हराएंगे ? सो वे भी चिंतित हो गए उन्होंने कहा की एक रूखड़ी है अमावस की रात को बीहड़ में चले जाना वहीँ से ले आना फिर उसका प्रयोग बताऊंगा ....! बिसंभर सिंह गहरी सांस छोड़े , फिर बोले ..का कहें भैया रात के अँधेरे में गाँव से बीहड़ के लिए डांग गए अकेले गए' निशा वैजयन्ती ' खोजने ...जड़ लानी थी टोर्च भी काम नहीं कर रही थी ...! डर डकैतों का नहीं , बस सांप , बिच्छुओं का था ...इतने में दो चमकती आँखें दिखाई दी डर के मारे पैर काँप गए ..लेकिन हिम्मत से काम किये और तेजी से चिल्लाये ( जो डर से अक्सर हो जाता है ) लेकिन  आँखें मेरी और ही बढ़ी आ रही थी ...क्या करते हनुमान जी को याद किया ..लेकिन कोई काम नहीं बना ..लगता था कोई खतरनाक शैतान था जो अमावस की रात में मेरा ही इंतज़ार कर रहा था ..हम दमसाधे खड़े रहे जब   वे आँखें मेरे बगल से गुजरी तब देखा की एक बिल्ली थी ..तुरंत डंडा घुमाया और जोर से फटकारा बिल्ली मियाउन ... करके भागी और फिर रूखड़ी लेकर हमघर आगये ..." ..इति बिसंभर उवाच .....

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