मंगलवार, 5 जनवरी 2016

नेहरु जी के बारे में लोहिया जी ...

दादा, भारत विभाजन की कहानी पर आपका एक टुकडा याद आ रहा है , कहें तो दौहराउ ...
हाँ बसेसर , जरा बताओ तो भला ..
दादा आपने कहा था कि, एक कहानी को इस देश में प्रचारित होने दिया गया है कि लेडी माउन्ट बेटन ने नेहरु जी पर कुछ दुष्ट प्रभाव का प्रयोग किया ! इतिहास की गप्प - गोष्ठियां वास्तव में इस झूठ को सत्य बना सकती हैं ! मौलाना आज़ाद पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अनेक वर्षों की इस सामयिक गप्प को इतिहास बनाने की कोशिश की ! यद्यपि ऐसी बातें नेहरूजी के तात्कालिक लाभ की हो सकती हैं , क्योंकि वे उन्हें सीधे गुनाह से मुक्त करती हैं और उन्हें आकर्षण और माया के शिकार जैसा रूप देती है , लेकिन आगे चलकर उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाती है और राजनीतिक प्रक्रिया की गहरी धाराओं को अछूता छोड़ देती हैं !
कहीं इतिहास भी लेडी माउन्ट बेटन को वह महत्त्व न दे दे जो उन्हें अब तक सामयिक गप्पें देती रही हैं, इसलिए यह बुद्धिमानी होगी कि यह याद कर लिया जाए कि लगभग ऐसी ही भूमिका मेडम चियांग काई शेक पर थोपी गयी थी ! चीन की मेडम ने वास्तव में उस समय के ब्रिटिश वायसराय लार्ड लिनलिथिगो को उत्तेजित किया था और थोडा दुखी भी किया था क्यूंकि उनकी परवाह न करके उसने अपने बाल-मित्र की बरौनियों को बहुत अधिक पसंद किया था ! इसके पहले भी ऐसे मौके आये थे , जब नेहरूजी ने अधिक सामान्य और अधिक क्रान्तिकारिणी औरतों से मित्रता की थी , जैसे हिन्दुस्तान और ब्रिटेन की एलेन विल्किनसंस! मैं पूरे निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि यदि श्रीमती ख्रुश्चेव हो और यदि वह मनहर और संलाप - प्रिय हों तो नेहरूजी उनके पीछे उसी तरह दौड़ते फिरेंगे जैसे वे इन दूसरी औरतों के पीछे दौड़ते फिरें हैं ! इसमें किसी प्रकार की गलत फहमी न हो ! लेकिन वे ऐसा तभी करेंगे जब भारत राष्ट्र के मामले की जरूरत हो , स्पष्ट है, उनके अपने हिसाब से !
नेहरू जी ने ने अपने राजनीतिक मतलबों के लिए लेडी माउन्ट बेटन का उपयोग किया था ! इस स्थिति के अनुमान को दुसरे पक्ष से जोड़ना भी उचित होगा ! लेडी माउन्ट बेटन और उनके लार्ड ने भी उसी तरह अपने राजनीतिक मतलबों के लिए नेहरूजी का इस्तेमाल किया !
हाँ बसेसर , ये गलत नहीं हैं ! नेहरूजी से वैचारिक गतिरोध अलग बात है लेकिन सही को सही कहना ही राजनीतिक सम्मान है , समझे ...
जी दादा ...प्रणाम
( लोहिया जी , के उद्धरण का वार्तालाप शैली में प्रयोग किया गया है)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

मदारी पासी ..ब्लॉग संकलन ( यह अशोक शुक्ल जी के ब्लॉग की पुनरावृति है )

मदारी पासी दलित वर्ग के पासी समाज के एक साधारण किसान के पुत्र थे । उनका जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के हरदोई, ज़िला की सण्डीला तहसील के ग्राम मोहन खेड़ा में वर्ष 1860 में हुआ था । उन्होंने उत्तर प्रदेश के हरदोईबहराइच एवं सीतापुर ज़िलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आन्दोलन' नाम का आन्दोलन चलाया
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हरदोई जनपद के योगदान की चर्चा करते हुये संग्राम सेनानी मदारी पासी का नाम बरबस ही याद आ जाता है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन पर जब राष्ट्रीय कांग्रेस का कब्जा हो गया तो आम ग्रामीण भारतीयों की समस्या को आगे बढ़ाने के लिये जो छोटे छोटे नेतृत्व और संगठन पनपे उन्हीं में से एक था मदारी पासी का एका आन्दोलन। अवध क्षेत्र में जमींदारों के उत्पीड़न से उपजा किसान आन्दोलन अलग अलग क्षेत्रों में भिन्न भिन्न नामों से पनपा। प्रतापगढ़ में इसका नाम तीसा आन्दोलन रहा और इसके नायक रमाचंदर किसान रहे तो अवध के संडीला मदारी पासी के साथ जुड़कर इसका नाम एका आन्दोलन हो गया। तत्कालीन दलित समाज की भूमि संबंधी समस्याओं और उनको संगठित करने के प्रयास के रूप में इस आन्दोलन का ऐतिहासिक महत्व है। यह भी सच है कि मदारी पासी के नाम को जनपद के इतिहास में वह स्थान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। मदारी पासी के जन्म के सम्बन्ध में कोई प्रमाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है परन्तु इनकी मृत्यु के साक्ष्य के रूप में ग्राम पहाड़पुर, ब्लॉक भरावन, तहसील सण्डीला, जनपद हरदोई में इनकी एक समाधि अवश्य उपलब्ध है जो संरक्षण के अभाव में तिरस्कृत पड़ी है।

अवध क्षेत्र में मदारी पासी महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं और जमींदारों के विरूद्ध आजादी के एका आंदोलन में अपनी एक बहुत बड़ी भूमिका के लिये याद किये जाते हैं। उनके आन्दोलन के संबंध में अंग्रेजी गजेटियर में जो भाग अंकित हैं उसका भावाअनुवाद इस प्रकार है- ‘’कांग्रेस के संरक्षण में सन १९२१ के आरंभ में हरदोई में किसान सभा आन्दोलन जो एका के नाम से प्रसिद्ध था आरंभ हुआ। जमींदारों द्वारा बुरी तरह शोषित और सरकार द्वारा उपेक्षित निर्धनता के दलदल में दबा किसान वर्ग, जिसकी स्थिति खेतिहर मजदूरों से थोड़ी भी अच्छी न थी, अपने दोहरे मालिकों सरकार और जमींदारों के विरूद्ध शस्त्रहीन और अहिंसक विद्रोह करने के लिये उठ खड़ा हुआ। पूरी तहसील सण्डीला, आधी तहसील हरदोई और तहसील बिलग्राम के एक भाग में दिन प्रतिदिन इस आन्दोलन का प्रभाव फैलता और तेजी पकड़ता चला गया आसामियों की बड़ी बड़ी सभायें आयोजित की गई इनमें हजारों कांग्रेस के चार आने के सदस्य बनाये गये और जमींदारों द्वारा दायर किये गये बेदखली के मुकदमों को लड़ने के लिये एक सुरक्षित कोष आरंभ कर दिया गया। जमींदारों के न्यायरहित मार्गों के विरूद्ध संगठित होने, किसान भाइयों के विरूद्ध मुकदमेबाजी से बाज आने और अपराध न करने की शपथें ली गयीं। पंचायते बनायी गयीं और आसामियों के आपसी झगड़ों को निपटाने के लिये पंच नामजद किये गये। न्याय विरूद्ध करों की अदायगी रोक दी गयी किन्तु खातों पर चढ़े लगान की अदायगी हो जाने दी गयी। इस आन्दोलन की शक्ति और लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अकेले एक ही पुलिस सरकिल में तीन दिन में इक्कीस एका सभाएँ की जाने की सूचना जिला कार्यालय को मिली। इन सभाओं में १५. से लेकर २... तक की संख्या में व्यक्ति सम्मिलित हुये। मार्च १९२२ में पुलिस जब ऐका सभा के बारे में पूछताछ कर रही थी उसे गोली चलानी पड़ी जिसमें दो आदमियों की मृत्यु हो गयी थी और बहुत से घायल हो गये थे किसान आन्दोलन के अंतर्गत प्रदर्शन प्रतिदिन होने लगे थे और सरकारी दफ्तरों व अदालतों का घेराव किया जाने लगा।‘’

सुप्रसिद्ध कथाकार श्रदेय कामतानाथ जी ने मदारी पासी को आधार में रखकर एक लोकप्रिय उपन्यास कालकथा लिखा है जिसमें कायस्थ परिवार के कानूनगो के परिवार के माध्यम से मदारी पासी के नेतृत्व की कथा को उजागर किया है। जिसका कथा सार इस प्रकार है- ''उन्नाव के एक गाँव चंदन पुर में कानून गो मुंशी रामप्रसाद रहा करते थे। जिनके पास खेती के साथ-साथ कानून गो जैसी नौकरी के कारण गाँव में काफी रसूख था और गाजी खेड़ा के ताल्लुकेदार अब्दुल गनी जैसे लोग भी उन्हें बराबरी का मान देते हैं। मुंशी जी के तीन बेटे हैं। जिसमें से बड़े लक्ष्मी गाँव में रहते हैं और मझले लखनऊ कचहरी में पेशकार हैं तथा तीसरा दसवीं में कई बार बैठता है पर हर बार फेल हो जाने के कारण लखनऊ चला जाता है नौकरी के लिए। बड़े बेटे लक्ष्मी का बेटा बच्चन भी चाचा के पास चला जाता है लेकिन जल्दी ही वह लखनऊ में चल रहे राजनीतिक आंदोलनों के प्रभाव में आ जाता है। बस इसी बच्चन के सहारे पूरे उपन्यास का तानाबाना बुना गया है। बच्चन कांग्रेस के विदेशी वस्त्रों की होली जलाए जाने के आंदोलन से शुरू कर खुद को क्रांतिकारियों के बीच जल्द ही पाता है और तब उसे पकड़ कर लाहौर ले जाया जाता है जहाँ उसे फाँसी दे दी जाती है। लेकिन इसके बीच उस समय अवध के गाँवों में चल रहे आंदोलन को भी बखूबी उघाड़ा गया है।
सबसे ज्यादा अपील करता है मदारी पासी का आंदोलन, जो एक मिथकीय चरित्र जैसा लगता है लेकिन उसके आंदोलन ने न सिर्फ सांप्रदायिक सद्भाव पैदा किया वरन् गाँवों में नीची कही जाने वाली जातियों में ऐसा रोमांच पैदा किया कि गाँवों के बड़े बड़े रसूख वाले लोगों को उनसे बेगार लेना या उनकी औरतों के साथ बदतमीजी महँगी पड़ऩे लगी। लेकिन इसके लिए मदारी ने उन्हें तैयार किया। मदारी के पहले चंदन पुर के पास की अछूत बस्ती दुर्जन खेड़ा में मुंशी जी के बेटे के रिश्ते के साले तेज शंकर, जो कांग्रेस के समर्पित सिपाही हैं, एक चेतना पैदा करते हैं। बूढ़े खूंटी की पुत्रवधू टिकुली के रूप में वहाँ तेजशंकर को ऐसी साहसी महिला मिलती है जो उस पूरे इलाके में गाँधी जी के आंदोलन को हवा देती है। टिकुली का ही साहस था कि वहाँ मदारी पासी अपनी सभा कर पाते हैं वर्ना अब्दुल गनी और ठाकुर ताल्लुकेदार उस पूरी बस्ती को तहस-नहस कर डालने पर तुले थे। उन्नाव, लखनऊ और सीतापुर व हरदोई में मदारी पासी की लोकप्रियता बिल्कुल गाँधी जी की तर्ज पर कुछ अलौकिक किस्म की थी। मसलन उनके बारे में कहा जाता था कि वो हनुमान जी की तरह उड़कर कहीं भी पहुंच जाते हैं। गाँधी जी के साथ उनका चरखा जाता था और मदारी पासी के साथ उनकी चारपाई और छोटी कही जाने वाली अछूत जातियां उन्हें भगवान की तरह मानती थी। पासी जातियां उन्हें अपना गाँधी ही मानती थीं और उनके बारे में वे गर्व से कहती थीं कि – ‘’उईं हमार पंचन के गाँधी आंय’’ (उपरोक्त कथा सार श्री शंभूनाथ शुक्ल जी के आलेख से साभार)

यह कहा जा सकता है कि उपन्यास के एक चरित्र के रूप में प्रदर्शित मदारी पासी का चरित्र अतिशयोक्तिपूर्ण व्याख्यानों से भरा हो सकता है और यह प्रमाणिक इतिहास नहीं हो सकता इसमें फिक्शन का तत्व अधिक हो सकता है परन्तु निर्विवाद रूप से यह मदारी पासी के तद्समय दलित नेतृत्व के रूप में उभरने को तो प्रमाणित ही करता है।

मदारी पासी के संबंध में जनपद सीतापुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. पं. मथुरा प्रसाद मिश्र वैद्य जी जो मेरे नाना थे से सुना एक किस्सा याद आता है जब उन्होंने बताया था कि आजादी के आन्दोलन के दौरान एक बार उनके गाँव कोदिकापुर में गाँधी जी के आने की बहुत चर्चा थी। आदरणीय नाना जी राजवैद्य थे और साथ ही कांग्रेसी नेता भी थे सो उन के गाँव में कांग्रेस का इतना बड़ा नेता आने वाला हो और उन्हें इसकी सूचना का पत्र न मिले यह असंभव था इसलिये उन्होंने उन दिनों संचार के साधन के एकमात्र प्रतिनिधि डाकघर रामगढ़ से जानकारी ली तो पता चला कि गाँधी जी का कोई कार्यक्रम नहीं है। उन्होंने बताया कि दो दिनों के बाद स्थानीय साप्ताहिक बाजार स्थल मोहकमगंज में दलित समुदाय का एक सम्मेलन हुआ जिसमें जमींदारों को लगान न देने और अस्पृश्यता के विरूद्ध आवाज उठाने हेतु काफी संख्या में लोग इकट्ठा हुये थे। इस सम्मेलन में मदारी पासी ने आकर दलितों को रोटी और मांस की शपथ खिलायी संभवतः इसी प्रसंग से प्रेरणा लेकर कामतानाथ जी ने अपने उपन्यास कालकथा में दलितों के गाँधी के रूप में मदारी पासी को चित्रित किया है।

मदारी पासी के किसी गाँव में जाने के पहले उनके लोग उस गाँव में जाते और इन नीची जातियों को एक पोटली को छुआकर कसम दिलाते कि वे एक रहेंगे। इस पोटली में एक ज्वार की रोटी और एक टुकड़ा मांस का होता। इसमें रोटी का मतलब होता- ‘’ईका मतलब है कि हमार पंचन की लड़ाई रोटी की है या समझ लेव कि पेट की आय अउर मांस का मतलब कि इस लड़ाई में अपने सरीर का मांस तक देंय पड़ सकत है।‘

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

मणिलाल भैया.......



मणिलाल तिवारी , चिंतामणि की आस में रिटाइरमेंट भी पा गए लेकिन बहुत से सुख उनकी पहुँच से थोड़ी ही दूर पर दम साधे खड़े रहे ! पता नहीं तिवारी जी उन सुखों की आहट नहीं सुन पाए या खिसियाकर उससे दूर ही खड़े रहे , हो सकता है ज़बरदस्ती गाँधी जी की तस्वीर के नीचे सो गए हो सो सपने में नैतिकता का केमीकल लोचा डाल गए हों ! लेकिन इस आधार पर सारे सुखों को त्याग दिया हो ऐसा नहीं था , सुखों का रास 
धारण कर माँ लक्ष्मी की निकटता का अहसास सदैव रहा ! तिवारी जी विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही एक ज्योतिषी का सानिध्य पा गए अक्सर अपने लिए आशीर्वाद की वाट जोहते ! स्नातक होते-होते एक बार पान की पीक के साथ एक आशीर्वाद भी पा गए , ज्योतिषी भविष्य का चित्रांकन कर उन्हें बड़े लोगों के घरों में प्रवेश और सानिध्य का आशीर्वाद दे दिए ! तिवारी जी गदगद हो गये सोचा लगता है की अब IAS से नाचे का क्या पद होगा ?? सो इसी सपने को पालते पोषते देवी-देवताओं से लेकर तमाम बाबाओं के दीवाने हो गए ! तरुणाई सिर चढ़ कर बोल रही थी , सो एक दिन थानेदार से भी भिड़ लिए . भिडंत इतनी ज़ोरदार थी की भविष्य के अधिकारिपने के चक्कर में लाठिओं के सुर उनके वेदनामई आलाप में बदल गए ! तिवारी जी मानों ज़मीन पर ही चले आये अब सपने रंबिरंगे तारों में बदल गए !

सिविल सेवा की पढाई की जगह अन्यत्र लिप्तता और चक्षु पोषण के चक्कर में उम्र गँवा बैठे सो सपना विलोपित सा होने लगा ! खैर सांस है तो आस है , तिवारी जी के ताउजी रघुनाथ प्रसाद अपने ज़माने के खासे बकैत रहे , भौकाल टाईट रखते थे इसी चक्कर में एक बिजली इंजीनिअर साहब की बिटिया को रोज डिपर देते , एक दिन पास मिल गया और ओवरटेक कर गए !खबर से बिजली इंजीनिअर की बत्ती गुल हो गयी , बड़े मान मनुहार के बाद पीछा छोड़े और कसम धरा ली की ज़रुरत पडी तो पीछे न हटना !बस मणिलाल के प्रसंग में ज़रुरत पड़ गयी , आखिर बाबूजी जवानी के नशे में थे काम न मिलता तो पगलाए सांड से घूमते सो बधिया करने की तयारी कर दी गयी और बिजली इंजिनीअर से कहकर नौकरी लगवा दी गयी ! पद नाम कोई बड़ा नहीं था , लेकिन ज्योतिषी कथन सत्य जान पड़ता था ! वे लाइन मेन बन गए ! वे हर बड़े छोटे घर में बे रोकटोक आ जा सकते थे ! कटिया मारों से ज़ज्बाती रिश्ते बना लिए थे सो अतरिक्त व्यवस्थाएं लक्ष्मी जी खुद कर जाती थीं ! कहीं कोई दिक्कत नहीं शादी किये , पिता कहलाने का सुख पाए और उनकी भी शादी कर लिए ! मणिलाल जी को अतरिक्त आमदनी की आस थी सो रिक्शों का काम शुरू करा दिए १०-२० रिक्शे जमा कर किराये पर देना शुरू कर दिए ! गाहे बगाहे रिक्शे पंचर होते सो एक बार तुनकी में बोले ससुरो तुम लोग रिक्शा नहीं चला पाते देखो आज में रिक्शा ले जाता हूँ ! तिवारी जैसे ही रिक्शा हांके पहिया पंचर हो गया ! तिवारी जी निराश नहीं हुए , सही कराकर आगे बढे , ज्यों ही चौराहे पर पहुंचे पैरों में करेंट सा दौड़ गया ! मालुम पड़ा की ये तो पुलिस का डंडा था ! पुलिस वाले ने गाली देते हुए रिक्शे से उतारकर साइड में लगवा दिया! और कहा कल कट मारकर निकला था क्यों रे , तिवारी जी ने कहा की कोई और रहा होगा लेकिन पुलिस वाला नहीं माना ! वह रिक्शा पहचानता था उस पर लिखा था - ' हनुमान जी सदा सहाय रहें ' ......

बारेलाल छीपा......




बचपन में  इनसे खासी मुलाकातें होती रहीं उम्र का अंदाज़ नहीं लगता था देह साठ पार बताती थी लेकिन कारनामें चालीस से ऊपर की इजाज़त न देते थे ! क्योंकि , तब की याददाश्त में उनके यहाँ एक नवजात भी था ! जिसके पिता होने का दावा वे करते रहते थे ! लगता है बीडी के धुएं ने उनकी मर्दानगी के साथ-साथ चेहरे से युवा होने के भाव भी चूस लिए ! बारेलाल के पडौसी रात को निश्चिंत होकर सोते , क्योंकि रात भर की खंसाई से मुफ्त में पहरेदारी हो जाती ! इसीलिए ठाकुर राधे सिंह अपनी बकरी को यूँ ही छोड़ देते ! बारेलाल छीपा बीडी के धुएं का गुबार ऊपर और नीचे से विसर्जित करते हुए अपने पूर्वजों को मुगलों के समय का रंगरेज़ बताते हैं ! वो तो बस नहीं चला नहीं तो कह देते की शाह्जान का अंगरखा और अनारकली की चोली भी वे ही रंगे थे ! बारेलाल की साँसे रेल इंजिन की आवाज को मात देती थी , नव युगल प्रेमी-प्रेमिका भी ऐसी सांस से थर्रा जाएँ , कारण अज्ञात था ! लेकिन वैज्ञानिक शोध इसके पीछे उनके फेफड़ों में हुआ संक्रमण बताते !

बारेलाल अपने पुश्तेनी व्यवसाय में नहीं थे वल्कि कभी राजगीरी या हम्माली जैसे काम में लगे रहते थे ! लेकिन माता , बाबा , धर्म , टोटका , भूत -प्रेत  , जिन्न-जिन्नात सब पर बड़ा भरोसा करते ! चूँकि बात अपने बचपन की है सो उनके बुढापे का लिहाज़ रखते हुए  कभी प्रतिरोध नहीं किये ! बारेलाल पक्के देवी भक्त थे , माँ काली की सवारी आने का दावा करते जय कार बुलते ही माता साक्षात आतीं और जो चाहें बुलबा लेती ! बारेलाल के अवचेतन में अंग्रेजी न सीख पाने की कुंठा थी सो कुछ अंग्रेजी सीखने की कोशिश ज़ारी रहती ! इसलिए जैसे ही बारेलाल पर माता आते ही सबसे  पहले प्रश्न पूछती, हू आर  यू ? माता को अंग्रेजी बोलते देखना बड़ा ही आश्चर्यजनक रहता ! लेकिन अपने समसामयिक अनुभवों के अलावा जैसे ही कोई प्रश्न दागा जाता  माता तुरंत  गायब हो जाती ! माता जब शरीर छोडती बारेलाल अचेत हो जाते ! एक बार इसी अचेतावस्था में मैंने बारेलाल को चुटकी  भर ली अचानक चेतना आ गयी जिसे आने में अक्सर टाइम लगता था ! एक बार मैंने उन्हें बीडी देते हुए इस का राज़ पूछा, बोले माता तो हमेशा शरीर में रहती हैं लेकिन आती सिर्फ सच्चे भक्तों के सामने ! में समझ गया जो अनर्गल प्रश्न पूछते हैं वे सच्चे भक्त हो ही नहीं सकते !!!  जय हो

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

त्रिलोकी नाथ की रजाई ...

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त्रिलोकी नाथ , भैया नाम पर मत जाईये ये तो अभी १ इंच जमीन के भी नाथ नहीं है , परिवार से बनती नहीं और गृहस्थी जुडती नहीं ! शक्लो सूरत भी ऐसी की स्वयं कई बार कमबख्त शीशा भी चूर होते बचा ! बढती दाड़ी पर कभी-कभी हाथ साफ़ कर लेते थे सो उस दिन लगता की आज नया अवतार हुआ है , नहीं तो त्रिलोकी लंका के सैनिक से दिखाई देते , जैसा कि कुछ नाटकों में देखा ! त्रिलोकी भेद विज्ञान के माहिर
 खिलाड़ी थे मेरा -तेरा सब जानते थे लेकिन उनका अपना सिद्धांत यह था कि जो मेरा है सो मेरा ,और जो तेरा है वो भी मेरा है ! त्रिलोकी को रात बिरात शादी के सपने बहुत आते , और इसी में सुख पा लेते ! पता नहीं कितनी सिलवटें इन्होने अपने जतन से बनाई ! इस मामले में जवान जान पड़ते थे ! वे अक्सर किसी फिल्म का ज़िक्र कर कहते जैन साहब , एक सुन्दर बड़ा सा घर हो और उसमे सीडियों से सफ़ेद कपड़ों में उतरती कोई सुन्दर सी लड़की हो ! नीचे फव्वारे लगे हों , उसमे बैठा जाए , तब जीवन का आनंद आये !बताईये इस त्रिलोकी को जीवन आनंद इस द्रश्य में झलक रहा था ! मैंने पूछा आएगा कहाँ से ये सब ?? तो बोले अरे फिल्मों होता है न सो बम्बई चले चलेंगे ! त्रिलोकी तर्कपूर्ण उत्तर से हम लोगों को निरुत्तर कर देता था !

त्रिलोकी जाड़े में जडाकर रातों-रात चिड़िया बनते-बनते रह गए ! उन्हें यह मालुम था कि अविवाहितों में ज्यादा गर्मी रहती है ! विज्ञान के किस सिद्धांत के आधार पर उन्होंने यह धारणा बनाई यह तो नहीं कह सकते , लेकिन वे अपने ज्ञान पर अटल थे ! एक कानियाँ बाबा उनके इस ज्ञान को और सम्रद्ध कर रहे थे ! सो एक बार कि बात है कि वाजीकरण के नुस्खे का गुप्त फार्मूला तयार कर औषधियों और मेवों को खूब घोंटा ! और दूध के साथ गरमा कर चढ़ा लिए चूँकि रात नहीं गहराई थी सो ठंडक नहीं बढ़ी थी , टी. व्ही. देखते-देखते चटाई पर ही पसर गये ! रात बढ़ते-बढ़ते ठण्ड का प्रकोप बढ़ा त्रिलोकी और सिकुड़ गए धीमे-धीमे सांप की कुंडली के समान जकड गए घरवालों ने सुबह देखा , तो त्रिलोकी इठे पड़े थे , विल्कुल निर्जीव से मानो भेद विज्ञान ने आत्मा और शरीर के भेद को जान लिया ! आनन् -फानन में उपचार शुरू हुआ और त्रिलोकी रजाई का कबच धारण कर लिए ! त्रिलोकी ने स्पष्ट किया कि ये सब इसलिए नहीं हुआ कि हमें ठंड लग गयी बल्कि , इस लिए हुआ कि नुश्के में एक चीज़ मिलाना भूल गए !

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

बलबीर भैया तेरी बलिहारियाँ .....


बलबीर भैया तेरी बलिहारियाँ .....

बलबीर भैया को धरती रोंदते हुए लगभग २९ साल हो चुकें हैं , इनका भोगोलिक विन्यास यही कोई ४ फीट ७ इंच के आस-पास होगा ज्यामितीय निर्धारण थोड़ा सा कठिन जान पड़ता है लेकिन हाँ अंकगणित रूप से पूरे आदमी ही जान पड़ते थे ! बलबीर भैया का मानना था कि उनके पुरखे राजस्थान के रजवाड़े से थे सो इस भ्रम को ताउम्र बनाए रखने के लिए एक नुकीली मूंछ धारण किये हुए थे ! लेकिन मूंछ का मर्दानगी से कोई संवंध कभी वे सीधे ही स्थापित नहीं कर पाए सिवाय इसके कि ये तो राजपूतानी शान है !  खैर ,बलबीर भैया मादाओं में चक्षु परित्यक्त थे , कहते हैं कि एक बार नवरात्रि उत्सव के दौरान देवी दर्शन करते -करते इतने भाव-भिवोर हो गए कि स्वयम को त्याग कर परकाया प्रवेशी बने जा रहे थे ! वो तो भला हो उन तांत्रिकों का जो परकाया प्रवेश का अबूझ ज्ञान सार्वजनिक नहीं था नहीं तो पता नही क्या कर बैठते ! हाँ, उसके बाद उनकी तंद्रा भंग करने के लिए लात-जूते चले तब वापिस इहलोक दर्शन कर सके बलवीर भैया ! सबेरे-सबेरे मुहं सुजाये रेलिंग पर चिपके थे स्कूली टाइम था , जब पूछा क्या हुआ ?? मासूमियत से बोले अरे जैन साहब बस कल थोडा गाडी भिड़ा लिए थे ! बलबीर भैया अलमस्त शौक़ीन थे , कमरे में हर वह सामान अंकित था जिसे ये अवचेतन मष्तिष्क दवाए बैठा था ! मसलन , पुरानी दिव्या भारती  एक जोड़ी करिश्मा , ऐश्वर्या की मुखाकृति , कमल सिद्दू  का फुलाफुल पोज एकाध अंग्रेजी टाईप की भी , B M W , फेरारी , हयाबुसा और हाँ एक व्हाइट हाउस भी था ! मजे की बात यह थी कि वे ये सब इच्छाएं भगवन के बिना पूरी करना चाहते थे ! क्योंकि उनके कमरे में भगवान् की छोटी बड़ी , आधी-अधूरी कोई  भी तसवीर मौजूद नहीं थी ! इस मामले में वे मार्क्स को भी अपना शागिर्द बनाए  हुए थे !

    बलबीर भैया बहुत कर्मनिष्ठ  समाजसेवी हैं! सो सुबह से शाम तक बिना फल की इच्छा किये हुए लगातार कन्या रक्षण हेतु स्वयं स्कूल से घर तक घर से स्कूल तक इस सेवा को निशुल्क उपलव्ध कराते इसमें कोई विभेद न था, सब उनकी अपनी ही थीं ! आज एक तो कल कोई और इस प्रकार वे इस सेवा दौर में अपनी इच्छाएं भी तृप्त कर परम सुख प्राप्त कर लेते थे ! इस मामले में वे नेताओं से कमतर तो न थे , जो सेवा करते -करते ही स्व कल्याण कर लेते हैं ! प्रसंगवस पूछ बैठे कि बलबीर भैया शादी - वादी का इरादा है कि नहीं ?? बड़े प्यार से बोले , भैया क्यों अपराध कराते हो आज सडक पर लड़कियों का चलना दूभर हो गया है , अगर उनकी रक्षा नहीं कर सके तो धिक्कार है ! और इस सेवा कार्य में शादी नाम का रोड़ा न फसाओ ....! अचानक उनकी निगाह बरबस ही ३६० डिग्री पर घूम रही थी वे रक्षण के लिए तयार थे ....! इसीलिए कहा गया है कि जो रक्षा करने का संकल्प रखते हैं वे ही तो राक्षस हैं ! रक्ष: स: इति राक्षस: .....! जय हो बलबीरे जीते रहो

रविवार, 2 दिसंबर 2012

खिंचे-खिंचे से तेजाबी लाल ....



ठंड की सुबह में सब जड़ हो जाता है मन , मष्तिष्क , और ये स्थूल काया भी ! और उस पर भी किक मारू दुपहिया हो तो बस कहने ही क्या , उसे जगाते-जगाते खुद हांफ जाते हैं, तब वे वायु विसर्जन कर किकियाते हैं और बस डगडगाते हुए चल पड़ते हैं ! ऐसा ही एक बेशकीमती दुपहिया अपने पास है जो अक्सर रूठा -रूठा सा रहता है ! बिलकुल स्वामी जी की तरह सब कुछ स्वयंभू ...! पडौसी तेजाबी लाल , ये इनका वास्तविक नाम नहीं था असली मुझे भी नहीं मालुम लेकिन उनकी फितरत को देख कर असली नाम जानने की इच्छा भी नहीं हुयी अक्सर पिच्च्च..पिचकारी मानकर असली पान खब्बुआ होने का साक्षात भान करते अक्सर हम मति भ्रम का शिकार होकर उन्हें कृष्णावतार में देखते और वे  मुझ अर्जुन को ज्ञान देते - ये दांत , शरीर , पैसा,  सड़क .. क्या है तुम्हारा जो झन्ना रहे हो सब नश्वर है , जड़ है ..भूल जाओ ,आओ पान की जुगाली करो में तुम्हें उसमे मिल जाऊंगा ! मुझे व्यर्थ ही इधर-उधर ढूंढते हो ...! उनका ज्ञान दान ने मुझे भी झटका दे दिया ...! खेर तेजाबी लाल , बड़े ही घरेलू किस्म के इंसान हैं , आम लोगों की तरह सामाजिक परजीविता भी विद्यमान है ! वे एकपक्षीय सहकारिता के घनघोर समर्थक थे ! ऐसा कोई मोहल्लेदार या सगे वाला नहीं था जो उनकी इस सहकारिता में नहीं आता हो ! इस मामले वे लगभग सब को एक नज़र से देखते थे ! मकान मालिक से लेकर हर छोटे- बड़े सब उनके इर्दगिर्द मंडराते लेकिन वे चक्मादारी में इतने सिद्धहस्त थे की नेता  जैसे लोगों को भी मात देते थे ! उनका अपना दर्शन था कि चार्वाक हमसे पहले थे और उनके सिद्धांतो का अनुसरण उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है ! इस चार्वाकी सिद्धांत के प्रसार में इतने डूब गए की कब वे लोगों की निगाहों से उतर गए पता नहीं चला ! इस पर उनका अपना मानना था कि, पता नहीं लोग चार्वाक को इतना गलत क्यों मानते हैं ! आखिर समाजवाद , साम्यवाद जैसे विचार इतने बुरे तो नहीं ! खैर ,  वे हर फ़िक्र को पीकते चले जाते थे ! आज सुबह -सुबह टकरागये , बोले बड़ी ऊंची जुगाड़ है , मजेदार काम है लाखों का खेल है बस शुरू में थोड़ी सेटिंग बैठानी है ! मैं कुछ समझा नहीं बोले , दो हज़ार कि व्यवस्था करा दो ..मॉल कमवा दूंगा ! हम अब तक खुद को मुफलिसी कि हीनता से ग्रसित मान रहे थे चेहरे पर संतोष उभर आया कि चलो इस महंगाई में जहाँ पैसा संवंधों और जान से ज्यादा प्यारा हो रहा है , वहां इस वन्दे ने कम से कम इस योग्य तो समझा कि मेरे पास दो हज़ार भी हो सकते हैं ! लेकिन तेजाबी लाल के कारनामों से मोहल्ला परिचित था सो हिम्मत नहीं जुटा सका ! फिर भी मैंने उन्हें आश्वासन दिया  कि बताता हूँ ! तेजाबी पिच्च्च ने पैर के पास टोकन सा चिपका दिया और कहा चलो अब दो की व्यवस्था और रह गयी है सो और देख लेतें हैं .....! फिर धीरे से मन ही मन में बोले साले दिखाई तो बड़े टिप टॉप देते हैं , और दो हज़ार में टें हुयी जा रही है !  अब उन्हें कौन बताये कि देश की अंदरूनी हालत मनमोहन जी जानते हैं और घर की माली हालत हम ..अगर डेकोरम न हो तो कौन पूछे कि लाल भुज्जकड़ कौन ????